Book Title: Bauddh Dharm Evam Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 64
________________ संन्यासी घर परिवार और समाज से अपना सम्बंध तोड़ लेता है तथा धन, सम्पत्ति का भी परित्याग कर देता है। मात्र यही नहीं, एक सच्चा संन्यासी तो लोकेषणा का भी त्याग कर देता है, किंतु धन, सम्पदा, परिवार और लोकेषणा का त्याग, समाज का परित्याग नहीं है, वस्तुतः यह त्याग स्वार्थवृत्ति का त्याग है, वासनामय जीवन का त्याग है। संन्यासी का यह संकल्प उसे समाज विमुख नहीं बनाता है अपितु समाज कल्याण की उच्चतर भूमिका में अधिष्ठित करता है। क्योंकि सच्चा समाज कल्याण निःस्वार्थता और विराग की भूमि पर अधिष्ठित होकर ही किया जा सकता है। अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए एकत्रित व्यक्तियों का समूह समाज नहीं होता और ऐसे स्वार्थी और वासना - लोलुप व्यक्तियां तथाकथित सेवा का कार्य समाज-सेवा की कोटि में नहीं आता है। समाज उन लोगों का समूह होता है जो अपने वैयक्तिक और पारिवारिक हितों का परित्याग करते हैं। निःस्वार्थभाव से लोकमंगल के लिए उठ खड़े होते हैं। चारों और लुटेरों का भी समूह होता है, किंतु वह समाज नहीं कहलाता। समाज की भावना ही वहीं पनपती है, जहां त्याग और स्वहित के विसर्जन का संकल्प होता है। भगवान बुद्ध ने जो भिक्षु संघ की व्यवस्था दी, वह सामाजिक चेतना की विरोधी नहीं है। बौद्ध भिक्षु लोकमंगल और सामाजिक दायित्वों से विमुख होकर भिक्षु नहीं बनता, अपितु वह लोककल्याण के लिए भिक्षु जीवन अंगीकार करता है। बुद्ध का यह आदेश- ‘चरत्थभिक्खवे चारिक्कं' बाहुजनहिताय बहुजनसुखाय, लोकानुकम्पाय, अत्थाय हिताय सुखाय देवमुनस्सानं' इस बात का प्रमाण है कि उनका भिक्षु संघ लोकमंगल के लिए ही है। संन्यास की भूमिका में निश्चित ही स्वार्थ और ममत्व के लिए कोई स्थान नहीं है। फिर भी संन्यास लोक कल्याण और सामाजिक दायित्वों के पलायन नहीं है, अपितु बहुजन समाज के प्रति समर्पण है। सच्चा श्रमण उस भूमिका पर खड़ा होता है जहां वह अपने को समष्टि में और समष्टि को अपने में देखता है। वस्तुतः निर्ममत्व और निःस्वार्थभाव से तथा अपने और पराये के संकीर्ण घेरे से ऊपर उठकर लोककल्याण के लिए प्रयत्नशील बने रहना, श्रमण जीवन की सच्ची भूमिका है। सच्चा श्रमण वह व्यक्ति है जो लोकमंगल के लिए अपने को और अपने शरीर को भी समर्पित कर देता है। संन्यास का तात्पर्य है व्यक्ति अपने और पराये के घेरे से ऊपर उठे और प्राणिमात्र प्रति उसका हृदय करुणाशील बने । आचार्य शांतिदेव बोधिचर्यावतार में लिखते हैं 58

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