Book Title: Bauddh Dharm Evam Darshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya VidyapithPage 53
________________ सम्यक् रूप से समझे बिना विचारकों ने उन्हें किसी एक अति की ओर ले जाने का प्रयत्न किया। एक ओर प्राचीन एवं मध्य युग के बौद्ध-दर्शन के सभी दार्शनिक आलोचकगण तथा सम्प्रतियुगे के बौद्ध-दर्शन के मर्मज्ञ विद्वान् पं. राहुल सांस्कृत्यायन हैं, तो दूसरी ओर सम्प्रतियुग के रायजडेविड्स, कु. आई.बी.हार्नर, आनंद के.कुमार स्वामी और डॉ.राधाकृष्णन् जैसे मनीषी हैं। प्रथम वर्ग बुद्ध के अनित्य, क्षणिक और अनात्म पर अधिक बल देकर उनका अर्थ उच्छेदवादी-दृष्टिकोण से करता है। यही कारण है कि बौद्ध-दर्शन के इन दार्शनिकआलोचकों ने उस पर कृतप्रणाश, अकृतभोग, स्मृतिभंग और प्रमोक्षभंग के दोष लगाकर उसकी दार्शनिक-मान्यताओं को नैतिक-दर्शन के प्रतिकूल सिद्ध किया। यह इसलिए हुआ कि बौद्ध-दर्शन का आलोचक वर्ग केवल आलोचना के उद्देश्य से बुद्ध के मन्तव्यों का अर्थ लगाना चाहता था, ताकि बौद्ध-दर्शन को तर्क की दृष्टि से निर्बल, अव्यावहारिक तथा नैतिक-जीवन की व्याख्या करने में असफल सिद्ध कर सके। इन विचारकों में साम्प्रदायिक-अभिनिवेश एवं दोषदर्शनबुद्धि का प्राधान्य था। पं. राहुलजी भी बौद्धमन्तव्यों की व्याख्या में उच्छेदवादी-दृष्टिकोण के समर्थक प्रतीत होते हैं। वे लिखते हैं, 'बुद्ध का अनित्यवाद भी दूसरा उत्पन्न होता है, दूसरा नष्ट होता है- के कहे के अनुसार किसी एक मौलिक-तत्त्व का बाहरी परिवर्तन मात्र नहीं, बल्कि एक का बिल्कुल नाश और दूसरे का बिल्कुल नया उत्पाद है। बुद्ध कार्य-कारण की निरंतर या अविच्छिन्न संतति को नहीं मानते। प्रतीत्यसमुत्पाद कार्य-कारण-नियम को अविच्छिन्न नहीं, विच्छिन्न प्रवाह बतलाता है, लेकिन यह मानने पर बौद्ध-दर्शन को कृतप्रणाश और अकृतभोग के दोषों से बचाया नहीं जा सकता। दूसरे, यदि बुद्ध का मन्तव्य यही था कि दूसरा उत्पन्न होता, दूसरा विनष्ट होता है, तो फिर उन्हें उच्छेदवाद का समर्थन करने में कौन-सा दोष प्रतीत हुआ? उन्होंने आलोकाश्यप के सामने यह क्यों स्वीकार नहीं किया कि सुख-दुःख का भोग स्वीकृत नहीं है? फिर इस आधार पर बुद्ध के कर्म-सिद्धांत की व्याख्या कैसे होगी? हमारे दृष्टिकोण से बुद्ध के मन्तव्यों की ऐसी व्याख्या उनके नैतिक-आदर्शों के अनुकूल सिद्ध नहीं होगी। दूसरे, यह मानना कि प्रतीत्यसमुत्पाद कार्यकारण-नियम को विच्छिन्न प्रवाह बताता है, नितान्त असंगत है। प्रवाह सदैव ही विच्छिन्न नहीं, अविच्छिन्न होता है। यदि विच्छिन्न होगा, तो वह प्रवाह ही नहीं रह जाएगा। कार्यकारण के प्रत्यय सदैव ही अविच्छिन्न (अभिन्न) होते हैं। यदि वे विच्छिन्न हैं, एक-दूसरे से पूर्ण स्वतंत्र हैं, 47Page Navigation
1 ... 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112