Book Title: Bauddh Dharm Evam Darshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya VidyapithPage 55
________________ 19 - बेकार है, चाहे भले ही डॉ. राधाकृष्णन्, कुमारस्वामी और आई. बी. हार्नर ने इस प्रकार का अनधिकारपूर्ण प्रत्यन किया हो।" इस प्रकार, हम देखते हैं कि बौद्ध दर्शन के आत्मसिद्धांत को समझने में दोनों ही दृष्टिकोण उचित नहीं हैं। वस्तुतः, इन भ्रान्तियों के मूल में जहां आग्रह-दृष्टि है, वहीं बौद्ध साहित्य में प्रयुक्त अनात्म, अनित्य, अव्याकृत, बुद्ध मौन तथा आत्मा शब्द की सम्यक् व्याख्या का अभाव भी है, अतः आवश्यक है कि इनके सम्यक् अर्थ को समझने का थोड़ा प्रयास किया जाए। भ्रान्त धारणाओं का कारण अनात्म ( अनत्त) का अर्थ बौद्ध दर्शन में 'अत्ता' शब्द का अर्थ है- मेरा, अपना । बुद्ध जब अनात्म का उपदेश देते हैं, तो उनका तात्पर्य यह है कि इस आनुभविक जगत् में कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं, जिसे मेरा या अपना कहा जा सके, क्योंकि सभी पदार्थ, सभी रूप, सभी वेदना, सभी संस्कार और सभी विज्ञान (चैत्तसिक - अनुभूतियां) हमारी इच्छाओं के अनुरूप नहीं हैं, अनित्य हैं, दुःखरूप हैं। उनके बारे में यह कैसे कहा जा सकता है कि वे अपने हैं, अतः वे अनात्म (अपने नहीं) हैं। बुद्ध के द्वारा दिया गया वह अनात्म का उपदेश हमें कुन्दकुन्द के उन वचनों की याद दिलाता है, जिसमें उन्होंने ज्ञाता (आत्मा) का ज्ञान के समस्त विषयों से विभेद बताया है। 20 बौद्ध-आगमों में ये ही मूलभूत विचार अनात्मवाद के उपदेश के रूप में पाए जाते हैं। इनका यह फलितार्थ नहीं मिलता है कि आत्मा नहीं है। श्री भरतसिंह उपाध्याय का मन्तव्य है कि बुद्ध का एक भी वचन सम्पूर्ण पालि - त्रिपिटक में इस निर्विशेष अर्थ का उद्धृत नहीं किया जा सकता कि आत्मा नहीं है। जहां उन्होंने 'अनात्मा' कहा, वहां पंच स्कन्धों की अपेक्षा से ही कहा है, बारह आयतनों और अठारह धातुओं के क्षेत्र को लेकर ही कहा है। 21 इस प्रकार, बुद्ध वचनों में अनात्म का अर्थ 'अपना नहीं', इतना ही है । वह सापेक्ष कथन है। इसका यह अर्थ नहीं है कि 'आत्मा नहीं हैं । बुद्ध ने आत्मा को न शाश्वत कहा, न अशाश्वत कहा, न यह कहा कि आत्मा है, न यह कहा कि आत्मा नहीं है, केवल रूपादि पंचस्कंधों का विश्लेषण कर यह बता दिया इनमें कहीं आत्मा नहीं है। बौद्ध दर्शन के अनात्मवाद को उसके आचारदर्शन के संदर्भ में ही समझा जा सकता है । बुद्ध के आचारदर्शन का सारा बल तृष्णा के प्रहाण पर है। तृष्णा न केवल स्थूल पदार्थों पर होती है, वरन् सूक्ष्म आध्यात्मिक पदार्थों पर भी हो सकती है। वह अस्तित्व की भी हो सकती है ( भवतृष्णा) और अनस्तित्व की भी 49 -Page Navigation
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