Book Title: Bauddh Dharm Evam Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 34
________________ मानते हैं कि अकलंक ने जो प्रमाण लक्षण निरूपित किया है, वह बौद्धों से और विशेष रूप से धर्मकीर्ति से पभावित है। यहां यह भी ज्ञातव्य है कि अकलंक (8वीं शती) और धर्मकीर्ति (7वीं शती) में लगभग एक शती का अंतर है। अतः उनके चिंतन पर धर्मकीर्ति का प्रभाव परिलक्षित होना अस्वाभाविक नहीं है, किंतु आश्चर्यजनक तथ्य तो यह है कि जैनन्याय के प्रमुख विद्वान् अकलंक जहां एक ओर तत्त्वार्थवार्तिक में प्रमाण को अनाधिगत ज्ञान मानने का खण्डन करते हैं, वहीं अष्टशती में में उसका समर्थन करते हुए प्रतीत होते हैं। इस संदर्भ में जैन और बौद्ध न्याय के युवा विद्वान् डॉ. धर्मचंद्र जैन का यह कथन युक्ति संगत है कि क्षणिकवादी एवं प्रमाणविप्लववादी बौद्धों की तत्त्वमीमांसा व प्रमाणमीमांसा में अनाधिगत अर्थ के ग्राहक ज्ञान का प्रमाण होना उपयुक्त हो सकता है, किंतु नित्यानित्यवादी एवं प्रमाणसंप्लववादी जैन दार्शनिकों के मत में नहीं (बौद्ध प्रमाणमीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा, पृ.79) जैनन्याय में अनाधिगत अर्थात् अगृहीत-ग्राही ज्ञान या अपूर्वज्ञान को प्रमाणलक्षण में सर्वप्रथम स्थान अकलंक ने ही दिया था, उसके पश्चात् माणिक्यनंदी आदि अनेक दिगम्बर जैन दार्शनिक प्रमाणलक्षण में अपूर्व या अनाधिगत शब्द का प्रयोग करते रहे हैं, किंतु अकलंक के निकटपरवर्ती विद्यानंद (लगभग 9वीं शती) ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में स्पष्ट रूप से अपूर्व या अनाधिगत विशेषण को प्रमाणलक्षण में व्यर्थ माना है। (तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 1/10/77)। उनके पश्चात् प्रभाचंद्र (दसवीं शती) ने अपूर्व या अनाधिगत अध्र के ग्राही ज्ञान को प्रमाणलक्षण निरूपण में एकांतरूप से अव्यर्थ तो नहीं कहा, लेकिन इतना अवश्य कहा है कि प्रमाण कथंचित् ही अपूर्व अर्थ का ग्राही होता है, किंतु सर्वथा अपूर्ण का ग्राही नहीं होता। जहां तक धर्मकीर्ति के प्रमाण के अविसंवादक लक्षण का प्रश्न है, यद्यपि सिद्धसेन दिवाकर ने बाधविवर्जित कहकर किसी अर्थ में उसे स्वीकार किया है, किंतु बाधविवर्जित एवं अविसंवादकता दोनों एक नहीं हैं। बाधविवर्जित होने का अर्थ है स्वतः एवं अन्य किसी प्रमाण का विरोधी या अविसंवादी नहीं होना है, जबकि अविसंवादिता का सामान्य अर्थ है ज्ञान और ज्ञेय में सारूप्य या संगति। जैसा कि हमने पूर्व में सूचित किया है कि जैन दार्शनिक अकलंक ने धर्मकीर्ति के इस अविसंवादकता नामक प्रमाण लक्षण को स्वीकार किया है। उनके परवर्ती माणिक्यनन्दी आदि अन्य दिगम्बर जैन आचार्यों ने भी उसका समर्थन किया, किंतु दिगम्बर विद्वान् विद्यानंद तथा श्वेताम्बर विद्वान् सिद्धर्षि 28

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