Book Title: Badmer Jile ke Prachin Jain Shilalekh
Author(s): Jain Shwetambar Nakoda Parshwanath Tirth
Publisher: Jain Shwetambar Nakoda Parshwanath Tirth

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Page 5
________________ प्रस्तावना * पश्चिमी राजस्थान जिसमें मरुमंडल, पूगल, जांगल, माड, सूराचन्दा रायधड़ा इत्यादि के प्राचीन क्षेत्र पाते हैं। पुरातन काल से हो जैन-धर्म और संस्कृति का महत्वपूर्ण क्षेत्र रहा है / वर्तमान पुरातत्वीय खोजों के अनुसार यह क्षेत्र सिन्धु घाटी की सभ्यता के अन्तर्गत पाता है और उपलब्ध प्रमाणों के अनुमार सिन्धु घाटी को सभ्यता जैन-धर्म व सस्कृति से प्रमुख रूप से प्रभावित थी। सोल प्रोफ मोहनजोदड़ो में वृषभ जो कि प्रथम तीर्थ कर भगवान् आदिनाथ अथवा ऋषभदेव का चिह्न है, स्वस्तिक जो कि जैन अष्ट मंगलों में से एक है। मीन युगल जिनका अष्ट मंगलों में स्थान है। नाग जो सातवें तीर्थ कर श्रीसुपाश्वनाथजी को अनेक मूर्तियों पर मिलता है तथा तेईसवें तीर्थ कर श्रीपार्श्वनाथ का चिह्न है, एक जैन प्रतीक के रूप में महत्वपूर्ण संकेत है तथा नग्न साधुनों का जैनों की काऊसग्ग ध्यान मुद्रा में अंकन इस शिलालेख पर जैन प्रभाव अथवा सिन्धु घाटी सभ्यता के जैन सम्बन्धों के रूप में एक उल्लेखनीय प्रमाण प्रस्तुत करता है / वासुदेव कृष्ण व बाईसवें तीर्थंकर श्रोअरिष्टनेमि के जैन-ग्रन्थों में उल्लेख इन दोनों महापुरुषों का सम्पूर्ण पश्चिमी भारत पर प्रभाव प्रकट करते हैं जिसमें कृष्ण-जरासन्ध युद्ध का तत्कालीन वैदिक सरस्वती नदी के किनारे नाकोड़ा तीर्थ मेवानगर के पास सोनवल्लो (वर्तमान सोनली) के पास युद्ध वर्णन को इस क्षेत्र को जैन ऐतिहासिकता के साथ जोड़ते हैं। __ भगवान् पार्श्वनाथ के गणवरों व पट्टधर प्राचार्यो ने भारत में अपने अखिल भारतीय साधुनों की गणव्यवस्था को अथवा गच्छव्यवस्था को व्यवस्थित करने हेतु भारत को नौ क्षेत्रों में विभाजित किया था जिसमें एक क्षेत्र सिन्धु सोवीर भी था जिसका यह भू-भाग भी एक हिस्सा था / जिससे स्पष्टतया इस क्षेत्र में भगवान् पार्श्वनाथ के समय जैन-प्रभाव का विशद स्वरूप दृष्टिगोचर होता है और इसी पार्श्वनाथ-परम्परा के पट्टधर प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने ओसवाल समाज की स्थापना की थी जो घटना महावीरनिर्वाण के पश्चात् की प्रथम व द्वितीय शताब्दी की घटना है / मरुमंडल क्षेत्र में अनेक मन्दिरों में प्राचार्य रत्नप्रभसूरि के समय के प्रतिबिम्ब प्रति. ष्ठानों के उल्लेख मिलते हैं जो महावीर के पूर्व तेईसवें तीर्थ कर पार्श्वनाथ के समय में इस क्षेत्र के जैन-प्रभाव की पुष्टि करते हैं / यह उल्लेखनीय है

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