Book Title: Astaka Prakarana
Author(s): K K Dixit
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 11
________________ वे अपने जैन पाठक का ध्यान सदा इस प्रश्न पर केन्द्रित करते हैं कि उसकी परंपरा-प्राप्त एक मान्यता को वास्तविक रूप से स्वीकार करने तथा उसे केवल औपचारिक रूप से स्वीकार करने के बीच अंतर क्या है । इस प्रकार के सभी स्थलों में आचार्य हरिभद्र का भार इस बात पर है कि एक जैन द्वारा अपनी परंपरा-प्राप्त किसी मान्यता की स्वीकृति यदि उसकी मनःशुद्धि का साधन नहीं सिद्ध होती तो वह स्वीकृति बेकार से भी गई-बीती है । लेकिन एक व्यक्ति की मनःशुद्धि, चाहे वह जैन-परंपरा की मान्यताओं को स्वीकार करने के फलस्वरूप अस्तित्व में आई हो या किसी दूसरी परंपरा की मान्यताओं को, मनःशुद्धि होने के नाते ठीक एक प्रकार की है, और आचार्य हरिभद्र को इस बात का पर्याप्त भान था । इसीलिए वे जैसे मानों इस प्रकार के अवसरों की ताक में रहते हैं जहाँ वे यह कह सके कि जैसा आचरण एक वह व्यक्ति करता है जिसने अमुक जैन मान्यता को वास्तविक अर्थ में स्वीकार किया हो ठीक वैसा ही आचरण एक वह व्यक्ति करता है जिसने अमुक दूसरी परंपरा की अमुक मान्यता को वास्तविक अर्थ में स्वीकार किया हो । यही कारण है कि उदात्त आचरण की आवश्यकता पर भार तथा परमत-सहिष्णुता ये दो ऐसी विशेषताएँ हैं जो आचार्य हरिभद्र के अधिकांश ग्रंथों में पाई जाती हैं तथा वे एक तटस्थ पाठक का ध्यान अपनी ओर बरबस आकृष्ट करती हैं, और उनका प्रस्तुत ग्रंथ इस संबंध में अपवाद नहीं । लेकिन एक जैन होने के नाते आचार्य हरिभद्र के लिए यह असंभव था कि वे किसी भी जैनेतर परंपरा की सभी मान्यताओं को सुसंगत घोषित कर दें । इतना ही नहीं, उन उन जैनेतर परंपराओं की वे वे कतिपय मान्यताएँ उनकी दृष्टि में इतनी अवांछनीय थी कि उनके प्रति आलोचनात्मक दृष्टिपात न करना तक उनके लिए असंभव था । यही कारण है कि आचार्य हरिभद्र ने अपने अधिकांश ग्रंथों में उन उन जैनेतर परंपराओं की उन उन कतिपय मान्यताओं की आलोचना जैन दृष्टिकोण से की है, और इस संबंध में भी उनका प्रस्तुत ग्रंथ अपवाद नहीं। जैसा कि अभी कहा गया था, प्रस्तुत ग्रंथ में चर्चित सभी प्रश्नों का प्रत्यक्ष अथवा अ-प्रत्यक्ष संबंध मोक्ष-साधन की समस्याओं से है । अब देखना है कि इसका अर्थ क्या । प्राचीन तथा मध्यकालीन भारत में पल्लवित हुए सभी धर्म-संप्रदाय पुनर्जन्म की संभावना में विश्वास रखते थे और वे सभी पुनर्जन्मचक्र से मुक्ति को एक व्यक्ति का चरम पुरुषार्थ मानते थे; (पुनर्जन्म-चक्र से मुक्ति का ही परिभाषिक नाम 'मोक्ष' है) । साथ ही, इन सब सम्प्रदायों को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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