Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 06
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 4
________________ तो खड़ा है। बदलियों में से उसकी भी छाव तो दिखाई पड़ती है। बदलियों में से उसका भी दर्शन तो होता है। जैसे ही कोई सदगुरु कुछ कहता है-कहा, शब्द बने। कहा, किसी ने सुना, व्याख्या बनी। कहा, कोई पीछे चला। चलनेवाला अपनी समझ से चलेगा। उसकी समझ मिश्रित हो जायेगी। फिर सदियां बीतती जाती हैं। अब अष्टावक्र को हजारों साल हुए। इन हजारों साल में हजारों लोगों ने अपना-अपना सब जोड़ा। अपनी- अपनी व्याख्यायें, अपने - अपने अर्थ डाले; उस सबसे विकृति हो गई। इस हजारों साल की प्रक्रिया में जो हुआ है उसे हम काट दें तो अष्टावक्र आज यहीं, इसी क्षण ताजे प्रगट हो जाते हैं। फिर परंपरा का भी उपयोग है, एकदम व्यर्थ नहीं है। मैं तुमसे कुछ कह रहा हूं अगर इसकी कोई परंपरा न बचे, इसकी कोई परंपरा न बने तो यह क्रांति बिलकुल खो जायेगी। यही तो जीवन का अदभुत विरोधाभास है। क्रांति को भी टिकने के लिए परंपरा बनना पड़ता है। और परंपरा बनकर क्रांति खो जाती है। लेकिन परंपरा की पर्तों के नीचे कहीं दीया जलता रहता है। और जब भी कोई सजग व्यक्ति ठीक चेष्टा करेगा तो पर्तों को तोड़कर फिर उस दीये को, जलते हुए दीये को फिर प्रगट कर देगा; फिर रोशनी प्रगट हो जायेगी। परंपरा तो ऐसे है, जैसे बीज के आसपास खोल होती है, मजबूती से बीज को बचाती है, रक्षा करती है। क्योंकि बीज तो कोमल है। अगर खोल न हो बचाने को तो कभी का नष्ट हो जाता। भूमि में पहुंचने के पहले ठीक ऋतु के आने के पहले, वर्षा के बादल घुमड़ते उसके पहले नष्ट हो गया होता। वह जो खोल है बीज की वह उसे बचाये रखती है। लेकिन कभी-कभी खोल इतनी मजबूत हो सकती है कि जब ठीक मौसम भी आ जाये, और बादल घिर उठे और मोर नाचने लगें, भूमि भी मिल जाये और तब भी खोल कहे, मैंने तुझे बचाया, मैं बचाये ही रहूंगी| अब तुझे मैं छोड़ नहीं सकती। खतरा है। तो जो रक्षक था वह भक्षक हो गया। परंपरा बचाती है। अगर परंपरा न होती तो अष्टावक्र के ये वचन बचते नहीं। इनको बचाया परंपरा ने। बिगाड़ भी परंपरा रही है, बचाया भी परंपरा ने। इस बात को ठीक से खयाल में लेना। अगर परंपरा न बनती तो अष्टावक्र के वचन खो गये होते। बहुत सदगुरुओं के वचन खो गये हैं। मखली गोशाल के कोई वचन आज मौजूद नहीं हैं। वह महावीर की हैसियत का ही व्यक्ति रहा होगा। जिसकी आलोचना महावीर को करनी पड़ी, बार-बार करनी पड़ी है, वह आदमी हैसियत का रहा होगा। लेकिन उसके कुछ वचन नहीं बचे, कोई परंपरा नहीं बनी। तो अब उसे आज छुड़ाने का कोई उपाय नहीं है। बन जाती परंपरा तो कारागृह में होता मखली गोशाल, लेकिन दरवाजे तोड़ सकते थे, ताले खोल सकते थे, सींखचे गला सकते थे। उसे मुक्त कर लेते। महावीर को अभी मुक्त किया जा सकता है। जैनों के कारागृह से मुक्त किया जा सकता है। बुद्ध को मुक्त किया जा सकता

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