Book Title: Anusandhan 2015 12 SrNo 68 Author(s): Shilchandrasuri Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad View full book textPage 4
________________ तथ्य वितथ-जूठं होय तेने तथ्यलेखे स्वीकारे-स्थापे, एवो संशोधक पोताना पक्षमां, सम्प्रदायमां मान-चांद भले मेळवे; शोध-जगत्मां तेनुं मूल्य 'जहांगीरी लोटा'थी विशेष नथी रहेतुं. __क्यारेक क्यारेक, जोके हवे तो वारंवार, आवा संशोधकोनो परिचय/परचो मळतो रहे छे. अमुक तथ्य विद्वानो द्वारा निर्विवादपणे प्रमाणित/स्वीकृत थो होय; तेना अन्य तमाम पक्षो के मतान्तरोनुं समुचित रीते निरसन थई चूक्युं होय; ते संशोधक व्यक्ति पण ते मुद्दे विरोध के विपरीत प्रतिपादन करवाने असमर्थ होय; तो पण, ज्यारे तेमां संमति आपवानी आवे त्यारे, ते, कां तो मौनपणे अलिप्त रहे, कां 'हुं आने स्वीकारी शकीश नहि' - एम कहे, कां सभा त्यजी जाय. एक राजकारणीने छाजे तेवो आ ‘अनेकान्तवाद (!)', तेवा लोकोने, पोताना वर्तुळमां, थोडीक इज्जत के मान-पद-प्रतिष्ठा अपावी जतो हशे; परन्तु मध्यस्थ अने सदाप्रतिष्ठित विद्वानोना समाजमां तो तेमनुं तथा तेमनां संशोधनोनुं तथा शब्दनुं - अभिप्रायनु मूल्य 'जहांगीरी लोटा'नुं ज, सन्दिग्ध ज, होवामुं. आपणी पासे आजे जे यत्किञ्चित् शोधजन्य इतिहासनी, पुरातात्त्विक तेमज साहित्यनी प्रसादी छे ते आवा - अडोल आसने बेठेला थोडाक - आंगळीना वेढे गणाय तेवा साचुकला संशोधकोने ज आभारी छे. अस्तु. - शी.Page Navigation
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