Book Title: Anusandhan 2014 03 SrNo 63
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 155
________________ जान्युआरी २०१४ उपाङ्ग साहित्य का रचनाकाल : I उपाङ्ग साहित्य के सभी ग्रन्थों का नन्दीसूत्र में उल्लेख होने से यह सिद्ध होता है कि उपाङ्गों के रचनाकाल की अन्तिम कालावधि वीरनिर्वाण संवत् ९८० या ९९३ के आगे नही जा सकती । इस सम्बन्ध में विचारणीय यह हैं कि तत्त्वार्थसूत्र की स्वोपज्ञटीका में अङ्गबाह्य ग्रन्थों के जो नाम मिलते हैं, उनमें उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प - व्यवहार, निशीथ और ऋषिभाषित के नाम तो मिलते हैं, किन्तु इसमें उपाङ्गवर्ग के एक भी ग्रन्थ का नामोल्लेख नहीं है, इस कारण विद्वत् वर्ग की यह मान्यता हैं कि उपाङ्ग साहित्य के रचना की पूर्वावधि ईसापूर्व प्रथम शताब्दी और उत्तरावधि ईसा की पांचवी शताब्दी के मध्य रही है । उपाङ्ग वर्ग के अर्न्तगत प्रज्ञापनासूत्र के रचियता आर्यश्याम को माना जाता है । आर्यश्याम निश्चितरूप में उमास्वाति से पूर्ववर्ती है। पट्टावलियों के अनुसार इनका काल ईस्वीपूर्व द्वितीय- प्रथम शताब्दी माना गया है । ये वीरनिर्वाण संवत् ३७६ तक युगप्रधान रहे हैं । ऐसी स्थिति में उपाङ्ग साहित्य के सब नही तो कम से कम कुछ ग्रन्थों का रचनाकाल ईस्वीपूर्व द्वितीय शताब्दी माना जा सकता हैं । किन्तु विषय-वस्तु आदि की अपेक्षा से विचार करने पर हम यह पाते है कि उपाङ्ग साहित्य कुछ ग्रन्थों की कुछ विषयवस्तु तो इससे भी पूर्व की है । उपाङ्ग साहित्य मैं निरयावलिका के कल्पिका वर्ग की विषयवस्तु में राजा बिम्बिसार श्रेणिक और उसके अन्य परिजनों का विस्तृत विवरण है, जो भगवान महावीर के समकालिक रहे हैं, चाहे उस विवरण को ग्रन्थरूप में निबद्ध कुछ काल पश्चात् किया गया हो । कूणिक- अजातशत्रु और वैशाली गणराज्य के अधिपति चेटक के मध्य हुए रथमूसल संग्राम का उल्लेख भगवतीसूत्र में उपलब्ध होता है, इससे भी उपाङ्ग साहित्य की प्राचीनता सिद्ध होती है । इसी प्रकार सामान्यतया विषय-वस्तु की अपेक्षा हम उपाङ्ग साहित्य को ईसापूर्व पांचवी शताब्दी से लेकर ईसा की चतुर्थ शताब्दी के मध्यकाल तक में निर्मित मान सकते है । यद्यपि स्पष्ट निर्देश के आधार पर उपाङ्ग साहित्य में प्रज्ञापनासूत्र को ही प्राचीनतम माना जा सकता है, किन्तु विषयवस्तु आदि की दृष्टि से विचार करने पर उसके अन्य ग्रन्थांश भी प्राचीन सिद्ध होते हैं । उदाहरणार्थ के Jain Education International For Personal & Private Use Only १४९ www.jainelibrary.org

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