Book Title: Anusandhan 2005 02 SrNo 31
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 7
________________ 2 अनुसन्धान- ३१ शकाय; ऐतिहासिकता माटे जरा विशेष ऊंडा ऊतरवुं पडे. परन्तु, वीसमा शतकमां उपाश्रयमां बेठा बेठा अने मात्र शास्त्राध्ययनने समर्पित जीवन जीवनारा एक जैन साधु, महेनत - मथामण करीने, बधु ऐतिह्य शोधवा मांडे, आंकडा तथा ते ते ग्रन्थोनां वचनोनो अभ्यास करे, ते वात बहु ज महत्त्वनी अने नोंधपात्र छे. आमां छेवटे मूर्तिपूजकोनी तथा मूर्तिनिषेधकोनी संख्या दर्शाववामां आवी छे. आ आंकडा आजथी ८० वर्ष अगाउना छे, ओ लक्ष्यमा लईने ज वांचवाना रहे छे. आजना वसती- विस्फोटना तथा धार्मिक मान्यताओना सांकर्यना युगमां आ आंकडाओमां मोटी अफडातफडी थाय ते पूर्णत: संभवित छे. जर्जरितप्राय अने पेन्सिलथी लखायेल झांखां पत्रो परथी थयेली आ रचनाओनी नकलोमां क्यांय कांई भाषानी के वाक्यरचनानी गरबड जणाय तो ते दरगुजर करवानी विज्ञप्ति छे. आचार्यश्रीविजयोदयसूरिविरचितो मूर्तिपूजायुक्तिबिन्दुः ॥ एँ नमः ॥ श्रीजिनाय नमः ॥ प्रणम्य श्रीमहावीरं नेमिसूरिं गुरुं तथा । मूर्तिपूजाविधेयत्वं सोपपत्तिकमुच्यते ॥१॥ न चास्या: परमात्मपूजायाः कस्मिंश्चिदपि व्रतेऽन्तर्भावासम्भवादनुपपन्नत्वं तदुपादेयताया इति साम्प्रतम् । सम्यक्त्वस्याऽप्येवं व्रताऽनन्तर्भावादनुपादेयतापत्तेः । ननु सम्यक्त्वमूलकान्येव व्रतानि फलप्रदानप्रत्यलानीति तदादावेवोपादेयं, पूजनं तु न तथेति चेत्; मैवं वोचः स्ववधाय कृत्योत्थापनसमम्। यतो गुरुवन्दनव्याख्यान श्रवणादेरपि तथैव त्वदुक्त्या व्रताऽनन्तर्भावादविधेयतापत्तेः । नन्विदं गुरुवन्दनादिकृत्यं सम्यक्त्वशुद्ध्यादिनिबन्धनत्वाद युक्तिमदेवेति चेत्, तर्त्यस्या अपि परमात्मपूजायाः सम्यक्त्वशुद्धिकृत्त्वं किं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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