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किरण १-२]
बन्दी
दान कराते, उस दानसे जहां श्राप बाहिरकी सब ही बढ़ी न तो कायरके समान धर्मका ही साथ छोड़ा, न निरुद्यमीके बड़ी संस्थानोको सहायता पहुचवाते, वहां आप उस दानसे समान वर्तन्य मार्गस ही मुंह मोड़ा। आपने जिस पथपर स्थानीय संस्थानोंका भी खूब उद्धार कराते, और यदि कदम रक्खा, उसपर अन्त तक साबित कदम रहे। श्रावश्यकता होती तो वहां स्कूल, विद्यालय, कन्यापाठशाला वाचनालय, चैत्यालय, श्रादि अनेक संस्था कायम
श्राप निरे सुधारक ही न थे, पाप बढे साहित्य सेवी
भी थे। अापने सर्वसाधारणके हितके लिए हज़ारो लेख कराते थे। अपनी धुनके श्राप बड़े ही धनी थे । कठिनाइयोसे
लिखनेके अलावा, अनेक आध्यात्मिक निबन्ध और भजन डरना तो श्राप सीखे ही न थे। श्राप जिस प्रतिज्ञाको लेते,
भी लिखे हैं । अनेक जैन ग्रन्थोंका टिप्पण सहित सरल उसे पूरी तरह निभाते और जिस योजनाको शुरू करते,
हिन्दी अनुवाद भी किया है। अनेक जैन स्मारक, शब्द
कोप और जीवनी सम्बन्धी ग्रन्थ भी लिखे हैं। आपका उसे श्राखरी मंजिल तक पहुंचाते । श्रापको कभी भी अपनी निन्दा और बढ़ाईवा खयाल न हुश्रा, पापको यदि
जहां अध्ययन विशाल था, वहां आपका लेखन भी कोई अनुराग था तो केवल जैन धर्मसे, जैन सम.जसे । इस
विशाल था। अनुरागमे श्राप इतने मस्त थे, इतने निर्भीक थे, कि इसके श्रापकी विचारसरणी और योजनाओंसे कुछ भी मत. लिए श्राप बडीमे बही आहुति दे देनेको, शक्तिमे भी भेद रखते हुए यह कहना ही होगा, कि आपका जीवन अधिक काम करनेको तैयार हो जाते थे। इस अनुरागके एक प्रादर्श जीवन था। ऐसे उदारवृत्ति, धर्मसेवी, कर्मटपथपर चलते हुए आपको कई बार ऐसे संकट पाये कि वीरके लिए जैन समाज जितनी भी कृतज्ञता दिखलाए, अपने पराए होगये, प्रशंसक मिन्दक बन गये, परन्तु आपने उतनी थोडी है।
" बन्दी
हो चला है जीर्ण, तेरी दासताका जाल बन्दी ! वेदनाओको समटे, मिसकते अरमान तेरे ! प्रणयकी पीड़ा लपेटे, किलकते ये प्राग तेरे !
व्यक्त करते हैं हृदयके घाव, गीले गाल बन्दी !!
हो चला है जीर्ण, तेरी दासताका जाल बन्दी !! विवशताके पाशमें पड़, मूक तू कब तक रहेगा ! कूपका मण्डूक बनकर, त्रास यों कब तक महंगा!
पास ही तो है नलय्याँ, देख निर्मल ताल बन्दी !! ___ हो चला है जीर्ण, तेरी दासताका जाल बन्दी !! नियतिके निश्चल नियमये ममयकी गति अतिप्रवल है, रजनिसे क्या और काला, दिवसमे क्या कुछ धवल है ?
होगये हैं वेत, पककर देख काले बाल बन्दी !!
होचला है जीर्ण, तेरी दासताका जाल बन्दी !! प्रलयका-तूफानका सन्देश ले आलोक या ! पापका दृढ-दुगे, सुघुमित-साधनासे कॅप-कॅपाया !
मुक अन्तरभावनामें झाँकता है काल बन्दी !! होचला है जीर्ण, तेरी दासताका जाल बन्दी !!
पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित'