Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna

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Page 10
________________ Jain Education International सम्पादकीय भगवान महावीर के अनुगामी ज्योतिर्धर आचार्यों की परम्परा में आचार्य प्रवर श्री आनन्द ऋषिजी का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा गया 1 भगवान महावीर के आदर्श और सिद्धान्त इनके जीवन के कण-कण में मुखरित हैं । ये साधुता के श्रृंगार है, मानवता के दिव्य हार हैं, ज्ञान और सेवा की अखण्डज्योति इनके जीवन को आलोकित कर रही 1 ऐसे संत विश्व के लिए प्रकाश पुंज बनकर आते हैं । संत का जीवनव्रत ही समर्पण है, वे मानवता को सुख, शान्ति, प्रेम, ज्ञान और सद्भाव मुक्त हस्त से बांटते हैं । आदान में नहीं, प्रदान में, ग्रहण में नहीं, समर्पण में ही उनका विश्वास है, फिर वे हमारी श्रद्धा और भक्ति का प्रतीक यह 'अभिनन्दन ग्रन्थ' स्वीकार करेंगे ? हम उन्हें अभिनन्दन समर्पित करें और वे उसे ग्रहण करेंगे ? यह एक प्रश्न चिन्ह मन में खड़ा हुआ था । गत वर्ष जब नागपुर में आचार्यप्रवर को अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित करने का निश्चय हुआ और उसके सम्पादन का दायित्व मुझे सोंपा गया तो मेरे मन में उक्त प्रश्न खड़ा हुआ । एक रातभर विचार मन्थन करता रहा । सहसा ही एक समाधान स्फुरित हो गया । महापुरुषों का अभिनन्दन उनके लिए नहीं, किन्तु आम जनता के लिए ही होता है । मन्दिर में भगवान का प्रसाद बटता है, भगवान कहाँ उसे ग्रहण करने आते हैं ? किन्तु हमारी अन्तर श्रद्धा, भावना भगवान को प्रतीक मानकर आम जनता के लिए वह प्रसाद वितरित करके कृतकृत्यता अनुभव करती है । क्या अभिनन्दन ग्रन्थ के सम्बन्ध में भी वही बात नहीं हो सकती ? सच बात तो यह है कि ऐसे महान व्यक्तित्व को केन्द्र मानकर विद्वानों और विचारकों की चिन्तनधारा उत्प्रेरित हो जाती है और कुछ 'उत्तम' तथा चिरस्थायी सर्जना कर डालती है । वह ज्ञान - विज्ञान की नव सर्जना, अनुशीलनात्मक चेतना तथा विचार सामग्री आम पाठकों के लिए एक अत्यन्त उपयोगी और प्रसाद की भांति ग्रहणीय बन जाती है । वास्तव में इस अभिनन्दन ग्रंथ का अयोजन आचार्य श्री के लिए नहीं, किन्तु हजारों ज्ञान-पिपासु जनों के लिए ही हुआ है । इसका समर्पण भी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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