Book Title: Ahimsa Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 62
________________ (५४) वें अध्याय में-प्राचीनबर्हिष राजाने नारद जी से पछा कि मेरा मन स्थिर क्यों नहीं रहता है ? तब नारदजी ने योगबल से देखकर कहा कि आपने जो प्राणियों के वधवाले बहुत से यज्ञ किये हैं इसीसे आपका चित्त स्थिर नही रहता है । ऐसा कहकर योगबल से राजा को यज्ञमें मारे हुए पशुओंका दृश्य आकाश में दिखलाया और नारदजीने कहा कि हे राजन् ! दया रहित होकर हजारों पशुओं को यज्ञ में जो तुमने मारा है वे पशु इस समय क्रुध होकर यह रास्ता देख रहे हैं कि राजा, मरकर कब आवे और हम लोग उसको अस्त्रों से काट कर कब अपना बदला चुकावें । देखिये श्रीमद्भागवत के चतुर्थ स्कन्ध में “भो भोः ! प्रजापते ! राजन् ! पशून् पश्य त्वयाऽध्वरे। ___ संज्ञापितान् जीवसङ्घान् निघणेन सहस्रशः " ॥ ७ ॥ " एते त्वां संप्रतीक्षन्ते स्मरन्तो वैशसं तव । संपरेतमयैः कूटैश्छिन्दन्त्युत्थितमन्यवः" ॥८॥ इन दोनों श्लोकों का भावार्थ ऊपरही स्पष्ट हो चुका है। इसके बाद प्राचीनबर्हिष राजा भयभीत होकर नारद के चरण पर गिर पड़ा और कहने लगा कि हे भगवन् ! अब मैं हिंसा नहीं करूंगा; किन्तु मेरा उद्धार कीजिये । तब नारदजीने ईश्वरभजनादि शुभकृत्यों को बतला कर उसका उद्धार किया; यह बात श्रीमद्भागवतमें लिखी है । इस स्थल में विशेष न लिखकर श्रीमद्भार

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