Book Title: Ahimsa Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 143
________________ डॉ. ए, पियर्स गोल्डन. डॉ. सीम्स वुडहेड, मि. ज्यार्ज हेन्डसलो. सर म्युअल, विल्कस, वेरोनेट, एफ, आर, एस. बरन क्युवियर महाशय कहते हैं कि मनुष्य संबन्धि शरीर की बनावट हरएक सक्षमता में, फकत अन्न-फल-शाक के भोजन के लिये योग्यता सिद्ध करती है । यह ठीक है कि मांस के भोजनको छोड देने के लिये इतना कठिन प्रतिबंध लेने में आता है कि कितनेक मनुष्य कि जो कठिन मनवाले नहीं होते हैं वे कदाचित् ही तिसको हटा सकते हैं परन्तु यह कोई उसके पक्ष में जाने वाला सिद्ध नहीं हो सकता है, इस भाँति तो एक मेंढे को नाविकों ने कितनेक समयतक मांसाहार पर पाला था उस मढ ने मुसाफरी पूरी होने पर अपने स्वाभाविक भोजन (शाकाहार) लेने की मनाही की और इसी भाँति घोडे, कुत्ते और कबूतरों के भी उदाहरण मिलते हैं कि जिन्हों ने दीर्घकाल तक मांसाहार करने पर भी अन्त में अपने स्वाभाविक भोजन के मिलने पर, मांसाहार के भोजन पर तिरस्कार दिखलाया । प्रो. लोनियस कहते हैं कि मेवा, फल और अनाजका भोजन मनुष्य के लिये सबसे विशेष योग्यता वाला है कि जो चौपार्यो, 'एनालोजी' के नियमों, जंगली मनुयों को, बन्दरों, मुख होजरी और हाथों की बनावट पर से सिद्ध होती है। प्रा. सर रीचर्ड ऑवेन महाशय कथन करते हैं कि- बन्दरों को कि जिसके साथ दांत की वनावट में सव प्राणियों की अपेक्षा विशेष रूपसे मनुष्य मिलता आता है. वे, फल, अनाज, गुठली वाले फलोंके बीज

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