Book Title: Ahimsa Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 119
________________ (१११) रख कर उसको उडाते थे, जब वे स्थिर निशानों में कुशल हो जाते थे उसके बाद अस्थिर निशानों का अभ्यास करते थे। याने सूखे मिर्च को डोरी से ऊँचे टाँगते थे जब वह वायु के जोरसे हिलने लगता था तब उसे गोली से उडाते थे। इत्यादि अनेक प्रकार की अहिंसामय क्रिया से कुशलता प्राप्त करते थे, जैसे वर्तमान समय में भी कई एक अगरेज लोग झठी वस्तु बनाकर उसपर घोडाओं को दौडाते है तथा निशानों पर पूर्वोक्त कोई चीज रखकर अभ्यास करते हैं। जब सीखने के लिये अनेक रास्ते हैं तो अन्य को दुःख देकर स्वयं कुशल बननेवाले को कोई बुद्धिमान उचित नहीं गिनेगा यदि राजा महाराजा को खुश करने के लिये शिकार करने की आज्ञा दी हो तो हम नहीं कह सकते है, क्योंकि कभी २ दाक्षिण्यता भी दुर्जनता का काम कर जाती है; किन्तु स्वार्थान्धता ही अनर्थ को उत्पन्न करती है । शिकार में कोई दोष न मानना, और शिकार राजा का भूषण कहना इत्यादि दाक्षिण्य और स्वार्थान्धता ही से है । सब प्रकार की जीवहिंसा में जो दोष माना है उसे मैं पुराणों के द्वारा पहिले ही सिद्ध कर चुका हूँ। सुश्रुत में भी कहा हुआ है कि" पाठीनः श्लेष्मलो वृष्यो निद्रालुः पिशिताशनः । दूषयेदम्लपित्तं तु कुष्ठरोगं करोत्यसौ ॥ ८॥ सुश्रुत, पृष्ठ १९८ भावार्थ-मत्स्य श्लेष्माकारक, वृष्य, निद्राकारक

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