Book Title: Ahimsa Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 135
________________ (१२७) आतिथ्यरहिते श्राद्धे भुञ्जते ये द्विजातयः । काकयोनि वजन्त्येते दाता चैव न संशयः ॥ ३ ॥ . कूर्मपुराण २२ अध्याय पृ० ६०८ वर्तमान समय में उपरोक्तलेख से विपरीत ही प्रवृत्ति दिखाई देती है। अतएव पूर्वोक्त बात से श्राद्ध में साधुओं को भिक्षा न देने की प्रवृत्ति चलाई गई है । ____ अब अन्त में जैनलोग ईश्वर तथा आत्मा इत्यादिको पूर्वोक्त रीतिसे मानते हैं श्राद्धको नहीं मानते । क्योंकि अहिंसा से उत्पन्न होनेवाला धर्म क्या हिंसासे हो सकता है ? । जलसे उत्पन्न होनेवाला कमल क्या अग्निसे हो सकता है ? । मृत्युदेनेवाला विष अगर जीवनबुद्धिसे खाया नाय तो क्या वह जीवन दे सकता है ?। वैसेही पापका हेतुभूत वध क्या कथनमात्रसे अवध हो सकता है ? । . सजनो! अपने अन्तःकरण में मैत्रीभावको धारण करो, भ्रातृभावशब्द को आगे करके कितनेही लोग मैत्री को भूल गये हैं। भ्रातृभाव यह है कि मनुष्यों के साथ प्रेमभाव रखना, और क्षुद्र जन्तुओंसे लेकरके इन्द्रतक प्रेमभाव को ही मैत्रीभाव कहते हैं। जब इस मैत्रीभाव को याद करोगे तबही तो मांसाहार छूटेगा और मांसाहार के छूट जाने पर ही वास्तविक में परमेश्वर के भक्त बनोगे ॥

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