Book Title: Ahimsa Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 123
________________ ( ११५ ) उपयोगपूर्वक कार्य करने से हिंसाजन्य दोष से दूषित मनुष्य नहीं होता है । अतएव योगी और भोगी के विषय में प्रश्न करनेवाले को पूर्वोक्त कथन से संतोष मिलेगा। किन्तु एकान्तरूप से आत्मा को नित्यमाननेवाले और एकान्त पक्ष से आत्मा को अनित्य माननेवाले के मन्तव्यानुसार दोनों पक्ष में हिंसा शब्द का व्यवहार नहीं होगा। क्योंकि एकान्त आत्मा के नित्य माननेवाले के पक्ष में आत्मा अविनाशी है अर्थात् उसका नाश होनेवाला नहीं है। उसी तरह अनित्य पक्षवालों के मत में भी आत्मा प्रतिक्षण विनाशी होने से स्वयं नष्ट होनेवाला है, उसका नाश्यनाशकभाव दुर्धट है, तो फिरहिंसा किसकी?! जहां हिंसाशब्दका प्रयोग ही नहीं है वहां अहिंसाधर्म की महिमा खरशृङ्ग के समान असत्कल्पनास्वरूप ठहरेगी। अतएव स्यावादमतानुसार कथञ्चित् नित्यानित्यभाव आत्मा में स्वीकार करना ही होगा, तब परिणामी आत्मा का उत्पाद, व्यय होने में कुछ भी विरोध नहीं आवेगा । और उत्पाद व्यय होने से भी पदार्थ का मूलस्वरूप जो तभावाव्ययरूप नित्यत्व है, वह बनाही रहता है । नित्यैकान्तवादी नित्य का लक्षण — अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपं नित्यम् ' इस तरह करते हैं। अर्थात् जो न कभी पतनको प्राप्त हो, और न उत्पन्न हो, ऐसी स्थिर जो वस्तु है वह नित्य है। किन्तु यह संसारी जीव में लक्षण नहीं घटेगा, क्योंकि जन्म मरणादि क्रिया आत्मा के जीवपरत्व में ही दिखाई देती है। इसी तरह एकान्त अनित्य पक्षमें अनित्य का लक्षण — तृतीयक्षणत्तिध्वंसप्रतियोगिकत्वं ' है, अर्थात् प्रथम क्षण में सभी

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