Book Title: Ahimsa Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 82
________________ (७४) " मां स भक्षयते यस्माद् भक्षयिष्ये तमप्यहम् । . एतद् गांसस्य मांसत्वमनुबुद्धयस्व भारत !" ॥३५॥ " येन येन शरीरेण यद् यत्कर्म करोति यः। तेन तेन शरीरेण तत्तत्फलमुपाश्नुते " ॥३६॥ " अहिंसा परमो धर्मस्तथाऽहिंसा परो दमः । अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः ॥३७॥ " अहिंसा परमो यज्ञस्तथाऽ हसा परं फलम् । ___ अहिंसा परमं मित्रमहिंसा परमं सुखम् " ॥३८॥ " सर्वयज्ञेषु वा दानं सर्वतीर्थेषु वाऽऽप्लुतम् । सर्वदानफलं वाऽपि नैतत्तुल्यमहिंसया" ॥ ३९ ॥ " अहिंस्रस्य तपोऽक्षय्यमहिंस्रो यजते सदा । अहिंस्रः सर्वभूतानां यथा माता यथा पिता" ॥४०॥ " एतत्फलमहिंसाया भयश्च कुरुपुङ्गव !। न हि शक्या गुणा वक्तुमपि वर्षशतैरपि" ॥४१॥ (श्रीवेङ्कटेश्वर प्रेस में छपाहुआ महाभारत अनुशासनपर्व के पत्र १२६ से १२७ तक) विवेचन-इन पूर्वोक्त श्लोकों के अत्यन्त सरल होने से इनकी व्याख्या करने की विशेष आवश्यकता नही है तथापि सामान्य रूप से यहां कुछ विवेचन करके आगे चलता हूँ । भीष्मपितामह ने युधिष्ठिर के पूर्वोक्त प्रनों का यह उत्तर दिया कि-हे भारत ! पृथ्वी में कोई वस्तु मांस की अपेक्षा किसको अच्छी नहीं मालूम होती

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