Book Title: Ahimsa Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 97
________________ (८९) परीवादं न कुर्वीत न हिंसां वा कदाचन । पैशुन्यं न च कर्त्तव्यं स्तन्यं वापि कदाचन ॥ ३५॥ - अध्याय १२७ पृष्ठ ६२१ नित्ययुक्तश्च शास्त्रज्ञो मम कर्मपरायणः । अहिंसा परमश्चैव सर्वभूतदयापरः ॥ ३७॥ अध्याय ११७ पृष्ठ ५१० भावार्थ-बाराहपुराण के कई श्लोक पहिले भी दिये जा चुके हैं किन्तु विशेषरूप से पूर्वोक्त श्लोक भी दिये गये हैं। इनका सारांश इस तरह है कि-जीवहिंसा से निवृत्त पुरुष सब जीवों के हितकर और पवित्रपुरुष तथा सर्वत्र समभाववाला होता है, याने उसको लोहा, पत्थर और काञ्चन (सुवर्ण) समान होता है। तथा किसी हिंसादि अनर्थ कार्य को नहीं करता है, और मधु, मांस का त्यागी, होकर मन से भी परस्त्री-ब्राह्मणी आदि के प्रति नहीं जाता है; और कुत्सित कर्मों को न करके अपना कौमारबत पालन करता है, तथा सब भूतों में दयायुक्त होकर सत्त्व से युक्त भी रहता है। वाराह का मांस, खाने के योग्य नहीं है और मत्स्य का मांस भी अभक्ष्य है। और दीक्षित ब्राह्मणों को तो कदापि इन्हें नहीं खाना चाहिये, क्योंकि उनके लिये वे सर्वथा अभक्ष्य हैं। और सत्पुरुष को परनिन्दा, हिंसा, चुगली, और चोरी भी नहीं करनी चाहिये। नित्यकर्मयुक्त शास्त्र को जाननेवाला मेरे कर्म में परायण, अहिंसा को परम धर्म माननेवाला, और सब सूक्ष्म बादर जीवों की दया में

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