Book Title: Agam Sutra Satik 36 Vyavahar ChhedSutra 3
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Shrut Prakashan
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व्यवहार-छेदसूत्रम्-२- ९/२१० महान् प्रयत्नः संभ्रमगर्मी विधीयते । दासभृतकानांतुन तादृशः प्रयत्न इति दासभृतकसूत्रचतुष्टयाद्विश्लेषकरणं पृथक्करण
मू. (२११) सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स एगवगडाए अंतो एगपयाए सागारिय चोपजीवइतम्हा दाधए नोसे कप्पइ पडिगाहेत्तए। [भा.३७१०] नीस अपडिहारीसमणुनाउत्तिमा अइपसंगा ।
एगपए परपिंडं गेण्हे परसुत्त-संबंधो ।। वृ-निसृष्टो दत्तोऽप्रतिहारी पिण्डः समनुज्ञातइति विचिन्त्यमा अतिप्रसङ्गत एकपदे एकस्यां तुल्यां शय्यातराद्व्यतिरिक्तस्य पिण्डं गृह्णीयादिति परसूत्रस्य परविषयसूत्राष्टकस्य सम्बन्धः । अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या सागारिकज्ञातकः सागारिकस्वजनः स्यात् सागारिकस्य एकवगडाए एकस्मिन् गृहे सागारिकस्यान्तरे तस्यां प्रजायां चुल्यां । सागारिकं चोपजीवति तस्माद्दापयेत् । न से तस्य साधोः कल्पते प्रतिग्राहयितुं सागारिकासक्तचुल्लीदारुलवणाद्युपजीवनस्तस्य शय्यातरपिण्डस्य शय्यातरसत्कत्वात्, एवं शेषाण्यपिसप्तसूत्राणि भावनीयानि पाठःपुनस्तेषामेवं
मू. (२१२) सागारियस्स नायए सिवा सागारियस्स एगवडाए अंतो सागारियस्स अभिनिपयाए सागारियं चोपजीवति, तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए।
मू. (२१३) सागारियस्सनायएसिया सागारियस्सएगवडाए बाहिंसागारिथस्सएगपयाएसागारिय चउपजीवति, जम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिगाहेत्तए।
मू. (२१४) सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स एगवडाए बाहिं सागारियस्स अभिनिपयाए सागारियं च उवजीवति, तम्हा दावए, नो से कप्पतिपडिगाहित्तए।
मू. (२१५) सागारियरस नायए सिया सागारियस्स अभिनिवगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए अंतीसागारियस्स एगपयाए सागारिखंच उवजीवति, तम्हा दावए, नोसे कप्पइ पडिगाहेत्तए।
मू. (२१६) सागारियस्सनायए सिया सागारियरस अभिनिव्वगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपर्वसाए अंतोसागास्थिस्सअभिनिफ्याएसागारियंचउवजीवति, तम्हादावए, नोसेकप्पइपडिगाहेत्तए।
मू. (२१७) सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स अभिनिव्वगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए वाहिंसागारियस्स एगपयाए सागारियंच उवजीवइ, तम्हा दावए, नो से कप्पइपडिगाहेतए।
मू. (२१८) सागारियस्स नायएसिया सागारियस्स अभिनिव्वगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाएबाहिंसागारियरसअभिनिपयाएसागारियंच उवजीवइ, तम्हा दावए, नो से कप्पइपडिगाहेत्तए।
वृ- अत्र अभिनिव्वगडाए पृथगृहे एकद्वारे एकनिष्क्रमणप्रवेशे एकनिवेशनान्तर्वर्तित्वात्तया अभिनिपयाए इति अभिप्रत्येकं नियता विविक्ता प्रजाचुल्ली अभिनिप्रजा तस्यां, शेषंसुगमं - [भा.३७११] पुरपच्छसंथुतो वाविनायता उभयसंथुतो वावि ।
एगवगडा घरं तु पया उचुल्ली समक्खया ।। . वृ-ज्ञातको नाम पूर्वसंस्तुतो यदिवा पश्चात्संस्तुतोऽथवा उभयसंस्तुतः स्वजनः, पूर्वसंस्तुतो नाम मातापितृपक्षवर्ती, पश्चात्संस्तुतो भापक्षगत, उभयसंस्तुतस्तथा विधनात्रा सम्बन्धविशेषभावत उभयपक्षवर्ती, एकवगडा नाम एकं गृहं, प्रजा तुचुल्ली समाख्याता, प्रकर्षण जायते पाकनिष्पत्तिरस्यामिति प्रतिव्युत्पत्तेः ।
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