Book Title: Agam Sutra Satik 34 Nishith ChhedSutra 1
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Shrut Prakashan

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Page 1243
________________ ३४४ निशीथ - छेदसूत्रम् - ३२० / १३७० गिरिं नदिं वा परिहरंतो जाति, आदिग्गहणातो समुद्दमडविं वा । परिगमो त्ति वा पज्जहारो त्ति वा परिरओ त्ति वा एग । परिहरणं परिहारो दुविहो लोइओ लोउत्तरो य । तत्थ लोगे इमो- "लोगे जह" "पुव्वद्धं कंठं । लोउत्तरपरिहारो दुविहो- परिभोगे धरणे य । परिभोगे परिभुंजति पाउनिज्जतीत्यर्थः । धारणपरिहारो नाम जं संगोविजति पडिलेहिज्जति य, न य परिभुंजति । दुविहो- लोइओ लोउत्तरिओ य । लोइओ इत्तरितो आवकहिओ य । इत्तरिओ सूयगमतगादिदसदिवसवञ्जणं, आवकहितो जहा नड- वरुड-छिनग्गए जुहति लोउतरिओ दुविहो इत्तरिओ आवकहितो य । तत्थ इत्तरिओ सेज्जायरदानअभिगमसड्डादि, आवकहितो रायपिंडो । अहवा - "अट्ठारस पुरिसेसुं ।” अनुग्गहपरिहारो [भा. ६२९५ ] खोडादिभंगऽनुग्गह, भावे आवण्णसुद्धपरिहारे । मासादी आवण्णो, तेन तु पगतं न अन्नेहिं । धू- "खोडभंगो' त्तिवा, “उक्कोडभंगो "त्तिवा, "अक्खोडभंगो' त्ति वा एगडं, आङ् मर्यादायां । खोडं नाम जं रायकुलस्स हिरण्णादि दव्वं दायव्वं वेट्ठिकरणं परं परिणयणं चोरभडादियाण य चोल्लगादिप्पदाणं तस्स भंगी खोडभंगो, तं रायणुग्गहेणं मज्जायाए भंजंतो एक्कं दो तिन्नि वा सेवति जावतिय अनुग्गहो से कज्जति तत्तियं कालं सो दव्वादिसु परिहरिजति तावत् कालं न दाप्यतेत्यर्थः । एस अनुग्गह परिहारो । भावपरिहारो दुविहो- आवण्णपरिहारो सुद्धपरिहारो य । तत्थ सुद्धपरिहारो जो वि सुच्चा पंचयामं अनुत्तरं धम्मं परिहरइ-करोतीत्यर्थः । विसुद्धपरिहारकप्पो वा घेप्पइ । आवण्णपरिहारो पुण जो मासियंवा जाव छम्मासियं वा पायच्छित्तं आवण्णो तेन सो सपच्छिती असुद्धो अ विसुद्धचरणेहिं साहूहिं परिहरिज्जति । इह तेन अहिकारोन सेसेहिं (अधिकारी) विकोवणट्ठा पुण परूविया ॥ इदानिं ठाणं, तस्सिमो चोद्दसविहो निक्खेवो [भा. ६२९६] नामं ठवणा दविए, खेत्तद्धा उड्डुओ विरति वसही । संजम परगह जोहो, अचल गणन संघणा भावे ॥ चू- नामठवणातो गयाओ, जाणगसरीर भवियवइरित्तं दव्वद्वाणं इमं[भा. ६२९७ ] सचित्तादी दव्वे, खेत्ते गामादि अद्धदुविहा उ । तिरियनरे कायठिती, भवठिति चेवावसेसाण ॥ चू- सच्चितदव्वड्डाणं अचित्तं मीसं । सचित्तदव्वद्वाणं तिविधं-दुपयं चउप्पयं अपयं । दुपयट्ठाणं दिणे जत्थ मनूसा उवविसंति तत्थ ठाणं जायति, चउप्पदाणं पि एवं चेव, अपदाणं पि जत्थ गरुयं फलं निक्खिप्पइ तत्थ ठाणं संजायति । अचित्तं जत्थ फलगाणि साहजंतादि नो निक्खिप्पंति तत्थ ठाणं । एतेसिं चेव दुपदादियाण समलंकिताण पूर्ववत् घडस्स वा जलभरियस्स ठाणं (मीसं ) खेत्तं गामणरादियं तेसिं ठाणं खेत्तद्वाणं, अहवा - खेत्तो गामनगरादियाण ठाणं । अद्धा काल इत्यर्थः, सो दुविधो उवलक्खितो जीवेसु अजीवेसु य। अजीवेसु जा जस्स ठिई। संसारिजीवेसु दुविधा ठिई-कायठिई भवठिती य, तत्थ तिरियणरेसु अनेगभवग्गहणसंभवातो कायठिई, सेसाणं ति - देवनारगाणं एगमवसंचिट्टणा भवठिई, अहवा-कालट्ठाणं समयावलियादि नेयं ॥ ठाण निसीय तुअट्टण, उड्डाती विरति सव्व देसे य । संजमठाणमसंखा, पग्गह लोगीतर दो पणगा ।। [भा. ६२९८ ] For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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