Book Title: Agam Sutra Satik 34 Nishith ChhedSutra 1
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Shrut Prakashan

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Page 1268
________________ ३६९ उद्देशक ः २०, मूलं-१३७९, [भा. ६४०२] आचार्य एवाह, “सुत्तं"त्ति अस्य व्याख्या[भा.६४०३] अवि यहु सुत्ते भणियं, सुत्तं विसमं ति मा भणसुएवं । संभवतिन सो हेतू, अत्ता जेनालियं बूया ॥ चू-आयरिओ भणइ-न वयं रागदोसिल्ला, जेण सुत्तं चेव फुडं समदाणंभणति । चोदगो त्ति चोदगो भणति, "जंतुमे भणति सुत्तेवुत्तंति, तं चेवसुत्तं विसमंति, जेण आदिपंचसगलसुत्ताणि पंच य बहुससुत्ताणि पुब्बावरविरुद्धाणि, जतो एतेसिं दोण्ह विपंचगसुत्ताणं विसमा पडिसेवणा समं दान" ति । आयरिओ भणइ- “चोदग ! जे तुम भणसि सुत्तं विसमंति तं" "मा" अस्य व्याख्या, मा भणसु एवं ति । सेसं कंठ । “वीतरागो हि सर्वज्ञः श्लोकः ॥ पुणो सीसो भणइभगवं! ननु विसमा पडिसेवणा वत्यू कहं वा विसमवत्यूसु सुद्धी समा भवति? उच्यते[भा.६४०४] कामं विसमा वत्यू, तुल्ला सोहि तधावि खलु तेसिं। पंच वणि तिपंच खरा, अतुल्लमुल्ला उ आहरणं ॥ धू-“काम" अनुमयत्थे, “खलु" सद्दो इमं अवधारेति, विसमवत्थुपडिसेवणासुविभवति चेव तुल्ला सुद्धी, सा य समा चेव, समसुद्धिपसाहणत्थं दिट्ठतो इमो, “गद्दभे" ति अस्य व्याख्या"पंचवणि' पच्छद्धं, जहा-पंच वणिया समभागसमाइत्ताववहरंति, तेसिं अन्नयाकयाइसमुप्पन्न जहा विरिंचामो । सबम्मि विभत्ते खरा विभयामो त्ति, ते य “तिपंचक्ख" - पन्नरस त्ति वुत्तं भवति, ते य विसमभरवहा विसममोल्ला ।। तेसम्मं विभज्जंता तिन्नि आवडंति, मुल्लतो पुण अतुल्लमुल्ला भवंति । ताहे ते. [भा.६४०५] विनिउत्तभंड भंडण, मा भंडह एत्थ एगो सट्ठीए। दो तीस तिन्नि वीसग, चउं पन्नर पंच बारसगा। सू-"विनिउत्तभंडि"त्तिसमंडोवकरणे विभत्तेविक्रीतंरासभणिमित्तं मंडिउमारद्धा असमत्था यसमंअप्पणा विभातियं अन्नं कुसलमुवट्टिता, तेन य मणिता- “मा भंडह, अहं भेसमं विभयामि, कहेहि किं को वहति ? कस्स किं मुल्लं ? ति । तें कहियं - एत्थ एक्को रासभो सहिमोल्लो, सदिच पलसते वहति, दो पत्तेयं तीसमुल्ला तीसपलसत्तो वाहिणो, एवं तिन्नि वीसा, चत्तारि पन्नरसा पंच बारसा एवं कहिए । तेन मुल्लसमा विभत्ता, एगस्स एगो सट्ठिमुल्लो दिन्नो, बितियवणियस्स तीसा दो, ततियस्स बीसा तिन्नि, चउत्थस्स पन्नरसमुल्ला चउरो, पंचमस्स पंच बारसमुल्ल । विसमवत्थूसु वि तेन सममुल्ला कया, न य सो विभयंतो रागदोसिल्लो, न य वणियाणं अत्थि हानी ॥ एयस्स इमो उवसंघारो[भा.६४०६] कुसलबिभागसरिसओ, गुरू य साहूय होति वणिया वा।। रासभसमा य मासा, मोल्लं पुण रागदोसा तु॥ चू-नवरं- “मुलं पुण रागदोसा उत्ति-जहा रासभदव्वगुणवुविहानीओ मुल्लस्स बुटिहानी तहा भावे रागद्दोसवुड्डीहानीजनितपडिसेवणाहिंतो पच्छित्तस्स वुड्डिहाणी भवतीत्यर्थः । जतो तिव्वरागद्दोसज्झवसाण सेवते मासट्टाणे मासो चेव दिज्जति, मदभावस्स दोसु मासियट्ठाणेसु पन्नरस पन्नरस घेत्तुं मासो दिज्जइ, एवं तिसु दस दस घेत्तुं मासो दिज्जइ, चउसु पत्तेयं अट्ठमा 17124] For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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