Book Title: Agam Sudha Sindhu Part 02 of 01
Author(s): Jinendravijay Gani
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala

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Page 70
________________ श्रीमत्सूत्रकृताङ्ग-सूत्रम् / श्रुतस्कंधः 2 अध्ययनं 2 ] [203 णो मंसाए णो सोणियाए एवं हिययाए पित्ताए वसाए पिच्छाए पुच्छाए वालाए सिंगाए विसाणाए दंताए दाढाए णहाए राहारुणिए अट्ठीए अट्टिमंजार णो हिंसिंसु मेत्ति णो हिंसंति मेत्ति णो हिंसिस्संति मत्ति णो पुत्तपोसणाए णो पसुपोसणयाए णो अगारपरिवूहणताए णो समणमाहणवत्तणाहेउं णो तस्स सरीरगस्म किंचि विपरियादित्ता भवंति, से हंता छेत्ता भेत्ता लुपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता उज्झिउं बाले वेरस्स आभागी भवति, अणट्ठादंडे 1 // से जहाणामए केइ पुरिसे जे इमे थावरा पाणा भवंति, तंजहा-इकडा इ वा कडिणा इ वा जंतुगा इ वा परगा इवा मोक्खा इवा तणा इवा कुसाइ वा कुच्छगा इ वा पवगा इवा पलाला इ वा, ते णो पुत्तमोसणाए णो पसुपोसणाए णो अगारपडिवूहणयाए णो समणमाहणपोसणयाए णो तस्स सरीरगस्स किंचि विपरियाइत्ता भवंति, से हंता छेत्ता भेत्ता लुपइत्ता विलुपइत्ता उद्दव. इत्ता उभिउं बाले वेरस्स श्राभागी भवति, अणट्ठादंडे 2 // से जहाणामए केइ पुरिसे कच्छसि वा दहंसि वा उदगंसि वा दवियंसि वा वलयंसि वा मंसि वा गहणंसि वा गहणविदुग्गंसि वा वणंसि वा वणविदुग्गसि वा पवयंसि वा पव्वयविदुग्गंसि वा तणाइं ऊसविय ऊसविय सयमेव अगणिकायं णिसिरति अराणेणवि अगणिकायं णिसिरावेति अगणंपि अगणिकायं णिसिरितं समणुजाणइ अणट्ठादंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजन्ति ग्राहिजइ, दोच्चे दंडसमादाणे अणट्ठादंडवत्तिएत्ति अाहिए 3 // सूत्रम् 18 // ग्रहावरे तच्चे दंडसमादाणे हिंसादंडवत्तिएत्ति पाहिजइ, से जहाणामए केइ पुरिसे ममं वा ममि वा यन्नं वा अनि वा हिंसिंसु वा हिंसइ वा हिंसिस्सइ वा तं दंडं तसथावरेहिं पाणेहिं सयमेव णिसिरति अराणेणवि णिसिरावेति अन्नपि णिसिरंतं समणुजाणइ हिंसादंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जंति पाहिजइ, तच्चे दंडसमादाणे हिंसादंडवत्तिएत्ति श्राहिए // सूत्रम् 11 //

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