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आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : ३५
आहार पर्याप्ति के पूर्ण होने में एक समय लगता है जबकि शरीरादि पाँच पर्याप्तियों में से प्रत्येक को अन्तर्मुहूर्त्त लगता है । इस प्रकार आहार पर्याप्ति के पूर्ण होने में कम समय लगता है और शेष पर्याप्तियों के पूर्ण होने में अधिक समय लगता है। यह छह पर्याप्तियाँ अन्तर्मुहूर्त्त में पूर्ण हो जाती हैं। इन छह पर्याप्तियों द्वारा गृहीत पुद्गल समान नहीं है। सबकी अलग-अलग वर्गणाएँ हैं । इस बात की पुष्टि आधुनिक विज्ञान ने भी की है। भाषा की ध्वनि तरंगें अलग होती हैं और शरीर निर्माण के पुद्गल अलग प्रकार के होते हैं।
सभी संसारी जीवों में सभी पर्याप्तियाँ नहीं होती हैं। कम से कम चार और अधिक से अधिक छह पर्याप्तियाँ संसारी जीवों में होती हैं। एकेन्द्रिय जीवों में छह में से प्रारम्भ की केवल चार पर्याप्तियाँ ही होती हैं । यथा - आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास । जो एकेन्द्रिय जीव इन चार पर्याप्तियों को अर्थात् स्वयोग्य पर्याप्ति को पूर्ण कर लेता है वह पर्याप्त कहलाता है और जो पूर्ण नहीं करता है वह अपर्याप्त है । द्वीन्द्रियों से लेकर पंचेन्द्रिय असंज्ञी जीवों में मनः पर्याप्ति को छोड़कर शेष पाँचों पर्याप्तियाँ होती हैं। यथा-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास और भाषा । केवल संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव ही ऐसे जीव हैं जिनमें सभी छह पर्याप्तियाँ होती हैं । इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि पहली चार पर्याप्तियाँ- आह्यर, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास संसार के सभी जीवों में होती हैं। चारों पर्याप्तियाँ पूर्ण करके ही जीव अगले भव का आयुबन्ध बाँधता है किन्तु जब कोई जीव अपर्याप्त दशा में मरता है तब वह कम से कम प्रथम की तीन पर्याप्तियाँ और चौथी में से आधी पर्याप्ति तो अवश्य ही पूर्ण करता है।
इस प्रकार पर्याप्ति जीवों का एक विलक्षण लक्षण है जो केवल जीवों में ही पाया जाता है। पर्याप्तियों के द्वारा जीवों में विभिन्न पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन और उत्सर्जन होता रहता है। आहार पर्याप्ति के द्वारा जीव आहार के योग्य पुद्गलों को लेते हैं, उन्हें आहार में परिणत करते हैं और मल-मूत्र आदि असार पुद्गलों को त्याग देते हैं। शरीर पर्याप्ति के द्वारा शरीर के योग्य पुद्गलों को लेते हैं। उन्हें शरीर के रूप में परिणत करते हैं और असार पुद्गलों को छोड़ देते हैं। इसी प्रकार इन्द्रिय पर्याप्ति, श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति व मनः पर्याप्ति के द्वारा क्रमशः इन्द्रिय योग्य, श्वासोच्छ्वास के योग्य, भाषा के योग्य व मन के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते हुए क्रमशः इन्हें इन्द्रिय के रूप में, श्वासोच्छ्वास के रूप में, भाषा के रूप में व मानस- विचारों के रूप में