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*६८ * दसवाँ बोल : कर्म आठ
आठों कर्मों की स्थिति (Duration—ड्यूरेशन) के विषय में उल्लेख है कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस क्रोड़ा-क्रोड़ी सागर और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है। इसी प्रकार मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर क्रोड़ा-क्रोड़ी सागर और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है। नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस क्रोड़ा-क्रोड़ी सागर और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है। आयु कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस क्रोड़ा-क्रोड़ी सागर और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है।
जैनदर्शन में कर्म व्यवस्था के अन्तर्गत कर्म की दशाओं का भी उल्लेख हुआ है। ये दशाएँ मुख्य रूप से दस हैं- . (१) बन्ध-आत्म-प्रदेशों के साथ कर्म पुद्गलों का सम्बन्ध होना।
दूध-पानी की तरह एकाकार हो जाना। प्रकृति (स्वभाव), स्थिति (समय या काल मर्यादा), अनुभाग (रस की तीव्रता-अल्पता) और प्रदेश (कर्म पुद्गल शक्ति का स्वभावानुसार अमुक-अमुक परिमाण
में बँट जाना) बंध के चार भेद हैं। (२) उद्वर्तन-कर्मों की स्थिति और रस में वृद्धि होना। . (३) अपवर्तना-कर्मों की स्थिति तथा रस में हानि होना। (४) सत्ता-बंध के बाद कर्म जब तक उदय में नहीं आकर अस्तित्व में रहते
(५) उदय-कर्म का शुभ या अशुभ फल रूप में उदय में आना। (६) उदीरणा-उदयकाल से पहले ही प्रयत्न करके कर्मों को भोग लेना। (७) संक्रमण-एक कर्म प्रकृति का दूसरी सजातीय कर्म प्रकृति में परिवर्तित
होना आयुष्य कर्म का संक्रमण नहीं होता है। (८) उपशम-मोह कर्म की अनुदय अवस्था। (९) निधत्ति-जिसमें उद्वर्तन अपवर्तन के सिवाय संक्रमण आदि नहीं हैं। (१०) निकाचना-जिन कर्मों का फल निश्चित स्थिति और अनुभाग के आधार पर भीगे बिना छुटकारा ही नहीं हो वे निकाचित कर्म कहलाते हैं।
(आधार : प्रज्ञापना पद २३)