Book Title: Agam Gyan Ki Adharshila Pacchis Bol
Author(s): Varunmuni
Publisher: Padma Prakashan

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Page 154
________________ * १४० * बीसवाँ बोल : षड्द्रव्य और उनके भेद (३) आकाशास्तिकाय (space-स्पेस) यह द्रव्य सभी द्रव्यों को अवकाश, यानी स्थान-आश्रय देता है। सभी द्रव्यों का आधार आकाश है और आकाश स्वयं अपना आधार है। आकाश को छोड़कर समस्त द्रव्य आधेय हैं। जिस प्रकार दूध में पताशा समा जाता है उसी प्रकार आकाश में सारे द्रव्य समाहित हैं। इसके पाँच भेद हैं- . (१) द्रव्य से एक, (२) क्षेत्र से लोकालोक प्रमाण, (३) काल से आदि-अन्तरहित, (४) भाव से वर्ण, गंध, रस, स्पर्शरहित, अरूपी, अजीव, शाश्वत, सर्वव्यापी, (५) गुण से अवकाशवान गुण। आकाश को जब अमूर्त्तिक माना गया है तो उसका आसमानी रंग हमें क्यों दिखाई देता है। इसका समाधान यह है कि यह रंग जो हमें दिखाई देता है वह आकाश का नहीं है। आकाश तो जैसा यहाँ है वैसा ही सर्वत्र है। यह रंग जो दिखाई दे रहा है वह दूर स्थित रजकणों का है। रजकण हमारे आसपास भी घूमते रहते हैं फिर भी सामीप्य के कारण दिखाई नहीं देते। दूरी व सघनता के कारण वही रजकण आसमानी वर्ण में दिखाई देने लगते हैं। जैसे-ऊँचे से बादल एक सघन पिण्ड के रूप में दिखाई देते हैं, पर निकट आने पर वे ऐसा प्रतीत नहीं होते। दूर से आकाश जमीन को स्पर्श करता हुआ दीखता है पर सामीप्य आने पर ऐसा नहीं है। _जैनदर्शन में आकाश के दो भेद किए गए हैं-एक लोकाकाश और दूसरा अलोकाकाश। लोकाकाश में सभी द्रव्यों का अवगाहन है परन्तु अलोकाकाश में केवल आकाश द्रव्य ही है। वहाँ धर्म, काल आदि कोई द्रव्य नहीं है। यानी आकाश में जहाँ तक धर्म-अधर्म अस्तिकाय की अवस्थिति है, वहाँ तक लोकाकाश है और उससे आगे अलोकाकाश। लोकाकाश परिमित है जबकि अलोकाकाश अपरिमित है, अनन्त है। इस बात की पुष्टि वैज्ञानिक जगत् में भी हुई है। लोक-अलोक के विषय में वैज्ञानिक अल्वर्ट आइन्स्टीन, डी. सीटर, पोइनकेर आदि की मान्यताएँ भिन्न-भिन्न हैं। आइन्स्टीन लोक को परिमित,

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