Book Title: Agam Gyan Ki Adharshila Pacchis Bol
Author(s): Varunmuni
Publisher: Padma Prakashan

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Page 156
________________ * १४२ : बीसवाँ बोल : षड्द्रव्य और उनके भेद काल का परम सूक्ष्म भाग 'समय' कहलाता है । समय नापने की विधि में भी विज्ञान जगत् और जैनदर्शन में अद्भुत साम्य है। दोनों ही गति - क्रियारूप स्पंदन के माध्यम से समय का परिमाण निश्चित करते हैं । ' आधुनिक विज्ञान जैनदर्शन के काल सम्बन्धी इस तथ्य को स्वीकारता है जिसमें कहा गया है कि काल पदार्थों के परिणमन, क्रियाशीलता व घटनाओं के निर्माण में भाग लेता है। वैज्ञानिक आइन्स्टीन, जिन्सवर्गसन ने सिद्ध किया है कि विश्व में काल द्रव्य की सत्ता के बल पर ही क्षण-क्षण में परिवर्तन हो रहा है। काल एक क्रियात्मक सत्ता (Dynamic reality — डायनेमिक रियेलिटी) है। वैज्ञानिक ऐडिंग्टन तो यहाँ तक कहते हैं कि "काल पदार्थ से भी अधिक वास्तविक भौतिक है।" आइन्स्टीन और लॉरेन्स समीकरणों से यह सिद्ध करते हैं कि “गति के तारतम्य से पदार्थ की आयु में संकोच - विस्तार होता है ।" वे आगे कहते हैं कि "देश और काल मिलकर एक है और वे चार डायमेन्शन्स में अपना काम करते हैं । विश्व के चतुरायाम संधरण में दिक्काल की स्वाभाविक अतिव्याप्ति से गुजरने के प्रयत्न लाघव का फल ही मध्याकर्षण होता है। देश और काल परस्पर स्वतंत्र सत्ताएँ हैं ।”२ (५) जीवास्तिकाय प्राणशक्ति जिसमें हो, वह जीव है अर्थात् प्राण धारण करने वाला द्रव्य, पदार्थ, जीव है। प्राण का लक्षण है चेतना, उपयोग, यानी जानना एवं संवेदनशील होना। ये लक्षण सभी जीवों में घटित होते हैं चाहे वे संसारी जीव हों, चाहे मुक्त जीव हों । प्राण दो प्रकार के कहे गए हैं - एक भाव प्राण और दूसरा द्रव्य प्राण | द्रव्य प्राण दस प्रकार के कहे गये हैं । भाव प्राण ज्ञान, दर्शन आदि हैं। संसारी जीवों में दोनों प्रकार के प्राण होते हैं किन्तु मुक्त जीवों में केवल भाव प्राण होते हैं। इस प्रकार मुक्त आत्माओं का भी प्राण धारण करने वाले जीवों में समावेश हो जाता है । विज्ञान ने जीव के जो लक्षण निर्धारित किए हैं, वे सभी लक्षण केवल संसारी जीवों पर ही लागू होते हैं, सिद्ध या मुक्त जीवों पर नहीं । १. नवनीत, मई १९६२, पृष्ठ ७० २. ज्ञानोदय, विज्ञान अंक, पृष्ठ ५९ तथा ११४

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