Book Title: Agam Gyan Ki Adharshila Pacchis Bol
Author(s): Varunmuni
Publisher: Padma Prakashan

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Page 182
________________ * १६८ : चौबीसवाँ बोल : भंग उनचास नवकोटि प्रत्याख्यान में किसी भी प्रकार के अप्रत्याख्यान के अंश की छूट नहीं है। नवकोटि प्रत्याख्यान - त्याग पूर्ण भंग वाला होता है। शेष अपूर्ण भंग वाले होते हैं। उनमें किसी न किसी रूप में अप्रत्याख्यान के अंश की सत्ता या छूट रह जाती है। लोक में जितने भी पाप हैं, वे सब पाप पाँच में ही गर्भित हैं जिन्हें पंच पाप कहा जाता है। ये पाप हैं - (१) हिंसा, (२) झूठ, (३) चोरी, (४) कुशील, (५) परिग्रह । श्रमण साधु इन पापों का परित्याग नौ कोटि से करते हैं जबकि श्रावक प्रायः दो कोटि से लेकर आठ कोटि तक इन पापों का परित्याग करते हैं। नौ कोटि में मूल है योग और करण । ये योग और करण मिलकर ही विकल्प या भंग या भांगे बनते हैं। योग और करण ये दोनों जैनदर्शन के. पारिभाषिक शब्द हैं। करण के द्वारा कार्य किए जाते हैं । करण के तीन प्रकार हैं - (१) कृत, (२) कारित, (३) अनुमोदित जो कार्य स्वयं किए जाते हैं, वे कृत कहलाते हैं; जो कार्य दूसरों से कराये जाते हैं, वे कारित और जिन कार्यों की अनुमोदना या समर्थन किया जाता है, वे अनुमोदना कहलाते हैं। मन, वचन और काया ये योग के तीन प्रकार हैं। इन तीनों को प्रवृत्ति और कार्य से जोड़ना होता है, यानी जो भी कार्य किया जाए वह मन से, वचन से और काया से किया जाए; जो कार्य कराया जाए, मन से, वचन से व काया से किया जाए तथा जिस कार्य का अनुमोदन किया जाए वह भी मन से, वचन से व काया से किया जाए, ये सब मिलकर नवकोटि कहलाती है । पाप करने वाला भी पापी, पाप कराने वाला भी पापी और पाप का अनुमोदन करने वाला भी पापी - ये तीनों एक ही श्रेणी में आते हैं अर्थात् पापी हैं। इसी प्रकार मन से पाप करने वाला भी पापी और वचन से तथा काया से पाप करने वाला भी पापी होता है। करना, कराना और अनुमोदना करना, मन से, वचन से व काया से ये नौ विकल्प या भंग बन ते हैं। कोई भी पापकर्म या पुण्यकर्म इन्हीं नौ विकल्पों से आते हैं जिन्हें त्याग द्वारा रोका जाता है। शास्त्रीय भाषा में इनके निरोध को संवर कहा जाता है। इस बात को हम हिंसा पाप के सन्दर्भ में इस प्रकार समझ सकते हैं । संसारी जीव के मूलतः नौ भेद हैं। यथा- (१) पृथ्वी, (२) जल, (३) अग्नि, (४) वायु, (५) वनस्पति, (६) द्वीन्द्रिय, (७) त्रीन्द्रिय, (८) चतुरिन्द्रिय, (९) पंचेन्द्रिय । इन नौ प्रकार के संसारी जीवों की मन से, वचन से व काया से हिंसादि स्वयं करें, कराएँ और करने की अनुमोदना करें तो मन के २७, वचन के २७ और काया के २७ मिलाकर ८१ भंग हो जाते हैं। कोई भी जीव ८१ विकल्पों या भंगों से हिंसादि कर सकता है। इन्हीं ८१ भंगों से हिंसादि को रोक भी सकता है। इसी प्रकार अचौर्य महाव्रत के चौवन भंगों या विकल्पों का उल्लेख हुआ है । यथा-छह प्रकार

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