Book Title: Agam Gyan Ki Adharshila Pacchis Bol
Author(s): Varunmuni
Publisher: Padma Prakashan

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Page 144
________________ * १३० * उन्नीसवाँ बोल : ध्यान चार - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - --- आर्त्तध्यान कहलाता है। आर्तध्यान छठवें अर्थात् प्रमत्त संयत गुणस्थान तक होता है, यानी सम्यक् दर्शन की प्राप्ति से पूर्व के सभी जीवों को आर्तध्यान रहता है इसके साथ ही अविरत, देशविरत और प्रमत्त संयत में भी आर्तध्यान हो सकता है। यह तिर्यंच गति का कारण है। आर्तध्यान के चार भेद हैं (१) अनिष्ट संयोग आर्तध्यान, (२) इष्ट वियोग आर्तध्यान, (३) वेदना आर्तध्यान, (४) निदान आर्तध्यान। (२) रौद्रध्यान जिस ध्यान में रुद्रता हो, क्रूरता-कठोरता हो, वह ध्यान रौद्रध्यान कहलाता है। रौद्रध्यानी जीव को न पाप से डर लगता है और न उसे परलोक की चिन्ता ही रहती है। ऐसा व्यक्ति घोर स्वार्थी, पतित, क्रूर, पापों में, परिग्रह में ही लीन रहता है। उसके आत्म-परिणामों की हिंसादि पापों में लवलीनता, यानी अनुबंधता रहती है। यह चार प्रकार का बताया गया है (१) हिंसानुबंधी, (२) मृषानुबंधी, (३) चौर्यानुबंधी, (४) संरक्षणानुबंधी। पहले में जीवों को सताने में, वध करने में, मारने-पीटने में, बंधन में डालने में आदि का विचार रहता है। दूसरे में झूठ बोलने में, दूसरों को ठगने या धोखा देने में मिथ्या वचनों वाग्जाल में उलझाए रखने में और वैसा ही विचार बनाए रखने में मनुष्य की प्रवृत्ति होती है। तीसरे प्रकार में चोरी, लूट-खसोट आदि के सम्बन्ध में विचार चलता रहता है। चौथे प्रकार में धान्य-धान्यादि परिग्रह की सुरक्षादि के लिए आकुल-व्याकुल व चिन्ता आदि करते रहना होता है। रौद्रध्यान केवल पाँचवें देशविरत गुणस्थान वाले तक के जीवों को ही होता है। इसमें भी देशविरत गुणस्थान वाले जीवों और अविरत सम्यक्त्वी को अर्थात् चौथे और पाँचवें गुणस्थान वाले जीवों को यह ध्यान कभी-कभी ही सम्भव है। इसका कारण यह है कि रौद्रध्यान नरकायु का कारण है। इसलिए ऐसे जीवों

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