Book Title: Agam Gyan Ki Adharshila Pacchis Bol
Author(s): Varunmuni
Publisher: Padma Prakashan

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Page 120
________________ सोलहवाँ बोल : दण्डक चौबीस (कर्मफल भोगने के स्थानों का वर्णन) (१) सात नारकों का दण्डक-एक (पहला), (२) भवनपति देवों के दण्डक-दस (दूसरे से ग्यारह तक), (३) तिर्यंच जीवों के दण्डक-नौ (बारह से बीस तक), (४) मनुष्य, व्यंतर देव, ज्योतिषी देव, वैमानिक देवों के एक-एक दण्डक-चार (इक्कीस से चौबीस तक)। दण्डक जैनदर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है, जिसका अर्थ है कर्मफल या दण्ड भोगने का स्थान। संसार का प्रत्येक प्राणी प्रवृत्तिमय है। यह.प्रवृत्ति दो प्रकार की होती है-एक शुभ प्रवृत्ति और दूसरी अशुभ प्रवृत्ति। शुभाशुभ प्रवृत्ति के कारण वह शुभाशुभ कर्म करता है। शुभ प्रवृत्ति द्वारा वह शुभ कर्म करता है और अशुभ प्रवृत्ति से वह अशुभ कर्मों का संचय करता है। इस प्रकार प्रत्येक प्राणी अपने शुभाशुभ कर्मों का स्वयं कर्ता है और इन शुभाशुभ कृत कर्मों के फल का स्वयं भोक्ता भी है। वह अपने शुभाशुभ कर्मों का फल भोगने के लिए चार प्रकार की गतियों में परिभ्रमण करता है। कर्मानुसार चार गतियों में परिभ्रमण करना ही एक प्रकार से उसके लिए दण्ड है। इस प्रकार संसारी प्राणी के कर्मफल भोगने की अवस्था या स्थान दण्डक कहलाता है। चार गतियाँ इस प्रकार हैं (१) नरक गति, (२) तिर्यंच गति, (३) मनुष्य गति, (४) देवगति। इनमें पहली दो गतियाँ अशुभ और बाद की दो गतियाँ शुभ मानी गई हैं। शुभ कर्मों से प्राणी मनुष्य गति और देवगति का दण्ड भोगता है तथा अशुभ कर्मों से उसे नरक और तिर्यंच गति का दण्ड मिलता है। जैनागम में चौबीस प्रकार के दण्डकों का उल्लेख हुआ है जिनमें पहला दण्डक नरक गति का है, दूसरा तिर्यंच गति का, तीसरा मनुष्य गति का और

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