Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra
Author(s): Devendramuni
Publisher: SuDharm Gyanmandir Mumbai

View full book text
Previous | Next

Page 472
________________ १४८. देखो कल्पसूत्र पृथ्वीचन्द्र टिप्पण सू० २७ १४९. प्रस्तुत सूत्र का आचारांग के निम्न सूत्र से मेल नहीं बैठता है - "साहरिज्जिस्सामि त्ति जाणइ, साहरिज्जमाणे वि जाणइ साहरिएमित्ति जाणई समणाउसो ! --आचारांग द्वितीय श्रुतस्कंध भावना अ० सू० ९९४ आचार्य आत्माराम जी म० द्वि० भा० १० १३५३----५ . हमारी दृष्टि से भी आचारांग का पाठ ही अधिक तर्क-संगत और आगम-सिद्ध है । क्योंकि संहरण में असंख्यात समय लगते हैं अतः अवधिज्ञानी उसे जान सकता है । प्रस्तुत सूत्र में यह भूल कब और कैसे हुई, यह विद्वानों के लिए अन्वेषण का विषय है । आचार्य पृथ्वीचन्द्र ने 'तिन्नाणोवगए साहरिज्जिस्सामि इत्यादि च्यवनवद् ज्ञेयम्” लिखा है, पर च्यवन में और संहरण में बहुत अन्तर है, च्यवन स्वतः होता है और संहरण पर-कृत । च्यवन एक समय में हो सकता है, किन्तु संहरण में असंख्यात समय लगते हैं। --सम्पादक १५०. कल्पसूत्र पृथ्वीचन्द्रटिप्पण सू० ३३ १५१. ऐसा माना जाता है कि प्रथम तीर्थकर की माता मरुदेवी को सर्व प्रथम वृषभ का स्वप्न आया और भगवान श्री महावीर की माता को सिंह का स्वप्न आया था, और शेष बावीस तीर्थंकरों की माता को प्रथम हाथी का स्वप्न आया था। संभव है यहाँ पर बहुल पाठ से ही इस प्रकार उल्लेख किया है। पाठ में सिंह का स्वप्न तीसरे क्रम पर है। --सम्पादक १५२. यहाँ पर यह स्मरण रखना चाहिए कि जो तीर्थकर देवलोक से च्यवकर आते हैं उनकी माता स्वप्न में विमान को देखती है, और जो तीर्थकर नरक से आते हैं उनकी माता स्वप्न में भवन को देखती हैं--"देवलोकाद्योऽवतरति तन्माता विमानं पश्यति यस्तु नरकात् तन्माताभवनमिति" --भगवती शतक ११ उद्दे० ११ अभयदेव वृत्ति 'एयमझें सोच्चा हट्ठतुट्ठ" हृष्टतुष्टः अत्यन्तं हृष्टं वा तुष्टं विस्मितं चित्तं यस्य सः आनन्दितः-ईषन्मुखसौम्यतादिभावः समृद्धिमुपगतः । ततश्च 'नंदिये' त्ति नन्दितस्तैरेव समद्धतरतामुपगतः 'पीइमणे' प्रीति--प्रीणनं मनसि यस्यः सः, 'परमसोमणिसिए, परमं सौमनस्यं--सुमनस्कता संजातं मनो यस्य सः, "धाराहय" धाराहतनीप:--कदम्बः सुरभिकुसुममिव “चंचुमालइए" त्ति पुलकिता तनुःशरीरं यस्य स तथा । किमुक्तं भवति ? 'ऊसवियरोम' उच्छ्वसितानि रोमाणि कूपेषु तद्रन्ध्रेषु यस्य सः तथा , 'मइपुग्वेणं' आभिनिबोधिकप्रभवेन 'बुद्धिविन्नाणेणं' बुद्धिः प्रत्यक्षदर्शिका। -कल्प० पृथ्वीचन्द्र टिप्पण सू० ५३ १५४. आरोग्यं--नीरोगता, तुष्टि:--हृदयतोषः, दीर्घायु:--आयुषो वृद्धिः, कल्याणानि-अर्थप्राप्तयः मङ्गलानि-अनर्थप्रतिघाताः । -- कल्पसूत्र टि० सू० ५३ १५५. तथा 'लक्खण वंजण' त्ति लक्षणानि-स्वस्तिकादीनि व्यञ्जनानि मषतिलकादीनि तेषां यो गुणः प्रशस्तता तेनोपेत:--युक्तो यः स तथा तम् । अथवा सहज लक्षणम् पश्चाद्भवं व्यञ्जनमिति गुणाः सौभाग्यादयः--लक्षणव्यअजनानां वा ये गुणास्तैरुपेतं--युक्तं यं तम् । लक्षण का अभिप्राय है शरीर पर अंकित छत्र, चामर, स्वस्तिक आदि चिन्ह । तीर्थंकर और चक्रवर्ती के शरीर पर १००८ शभ लक्षण होते हैं, वासुदेव बलदेव के १०८ तथा अन्य पुरुषों क शरीर पर ३२ लक्षण होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526