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५२
९२.
९३.
'क्षौमिलिया' शाखा की उत्पत्ति पूर्व बंगाल के क्षौमिल नगर से हुई थी जो वर्तमानमें कोमिला' नाम से प्रसिद्ध है ।
मानवगण की ये तीन शाखायें क्रमशः काश्यप, गौतम और वासिष्ठ गोत्रों से विश्रुत हुई हैं और चतुर्थ शाखा 'सोरठ्ठिया' की उत्पत्ति सोरठ नगर से हुई है, जो वर्तमान में मधुवनी से उत्तर पश्चिम में आठ मील पर 'सोरठ' नाम से अवस्थित है ।
९४. कोटिगण की उत्पत्ति सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध स्थविरों से हुई है । आर्य सुस्थित गृहस्थाश्रम
में कोटिवर्ष नगर के निवासी थे और सुप्रतिबुद्ध काकन्दी नगरी के । अतः इन स्थविरों के अपर नाम क्रमशः कोटिक और काकन्दक भी थे । इन स्थविरों से प्रादुर्भूत होने वाला गण 'कोटिक' नाम से विश्रुत हुआ ।
९५. 'उच्चानागरी' शाखा की उत्पत्ति उच्चा नगरी से हुई है । 'उच्चानगरी' ही वर्तमान में 'बुलन्द शहर' के नाम से विख्यात है ।
९६. मध्यमिका शाखा की उत्पत्ति चित्तोड़ के सन्निकटवर्ती मध्यमिका नगरी से हुई थी ।
९७.
'बंभलिज्जिय' कुल के स्थान पर मथुरा के शिलालेखों में ब्रह्मदासिका नाम उपलब्ध होता है । कल्याणविजय गणि के अभिमतानुसार यह नाम शुद्ध है- "कोटिक गण" के जन्मदाता सुस्थितसुप्रतिबुद्ध के गुरुभ्राता 'ब्रह्मगणी' का पूरा नाम 'ब्रह्मदास गनी' हो और उन्हीं के नाम से ब्रह्मदासिक कुल प्रसिद्ध हुआ हो ।" पट्टावली पराग पृ. ४१-४२ ९८. वाणिज्य कुल के स्थान पर मथुरा के शिलालेखों में 'ठाणियातो नाम उत्कीर्ण है । कल्याण विजय जी इस नाम को ठीक मानते हैं । देखें -- पट्टावली पराग पृ. ४२
९९. ( क ) कल्पसुबोधिका टीका पृ. ५५४, साराभाई मणिलाल नवाब
(ख) जैन परम्परानो इतिहास, भा. १, पृ. २२० - २२१ १००. सो पट्ठाणं आगतो । तत्थ य सातवाहणो राया सावगो | तेण समणपूयणओच्छणो पवत्तितो, अंतेउरं च भणियं - अमावसाए उववासं काउं "अट्ठमिमादीसु उववासं कातुं" इति पाठान्तरम् । पारणए साधूणं भिक्खं दाउ पारिज्जह | अध पज्जोसमणादिवसे आसण्णीभूते अज्जकालएण सातवाहणो भणितो -- भद्दवयजोण्हस्स पंचमीए पज्जोसावणा । रण्णा भणितो--तद्दिवसं मम इंदो अणुजायव्वो होहिति तो 'ण पज्जुवासिताणि चेतियाणि साधुओ य भविस्संति" ति कातुं तो छट्ठीए पज्जोसवणा भवतु । आयरिएण भणियं --न वट्टत्ति अतिकामेतुं । रण्णा भणितं -- तो चउत्थीए भवतु..... आयरिएण भणितं एवं होउ, त्ति चउत्थीए कता पज्जोसवणा । एवं चउत्थी वि जाता कारिणता । -- पज्जोसमणाकप्पणिज्जुत्ती पू. ८९.
(क) श्री निशीथसूत्र चूर्णि. उ. १०
भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति
१०१. तुम्बवन के परिचय के लिए देखिए -- मुनि श्री हजारीमल स्मृतिग्रंथ पृ. ६७७ ( क ) आवश्यक चूर्णि, प्रथम भा. प. ३९०
१०२.
(ख) अवंती जणवए तुम्बवणसन्निवेसे धणगिरी नाम इब्भपुत्तो ।
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- आवश्यक हारिभद्रीय टीका प्र. भा. प. २८९-१
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