________________ आदि नियम हैं, जो इनका जागरूकता के साथ पालन करता है वह प्रतिबुद्ध-जीवी कहलाता है। वर्तमान समय में चर्या का नियमन करने वाले पागम हैं। इसलिए स्पष्ट शब्दों में कहा गया है-भिक्षु सूत्रोक्त मार्ग पर चले 'सुत्तस्स मग्गेण चरेज्ज भिक्ख'। सूत्र का गम्भीर अर्थ-विधि और निषेध, उत्सर्ग और अपवाद आदि को अनेकान्त दृष्टि से जानकर आचरण करे / चूलिका के अन्त में यह महत्त्वपूर्ण संदेश दिया गया है कि सभी इन्द्रियों को सूसमाहित कर आत्मा की सतत रक्षा करनी चाहिए। कितने ही विचारकों का यह अभिमत है कि प्रात्मा को गवांकर भी शरीर की रक्षा होनी चाहिए, शरीर प्रात्मसाधना का साधन है किन्तु यहाँ इस विचारधारा का खण्डन किया गया है और प्रात्मरक्षा को ही सर्वोपरि माना गया है / आत्मा की रक्षा का अर्थ है--सयम की रक्षा और संयमरक्षा के लिए बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी होना आवश्यक है। इस प्रकार दशवकालिक सूत्र में श्रमणाचार का बहुत ही व्यवस्थित निरूपण है। जैन श्रमण बाह्य रूप से समस्त पापकारी वृत्तियों से बचे और आन्तरिक रूप से समस्त राग-द्वेषात्मक वत्तियों से ऊपर उठे / संक्षेप में कहा जाय तो पांचों इन्द्रियों और मन को संयम में रखे और निरन्तर संयम-साधना के पथ पर आगे बढ़े। दशवकालिक आगम अतीव महत्त्वपूर्ण है। श्रमण को सर्वप्रथम अपने प्राचार का ज्ञान प्रावश्यक है। दशवकालिक की रचना से पूर्व प्राचारांग का अध्ययन-अध्यापन होता था पर दशवकालिक की रचना के बाद प्राचारबोध के लिए सर्वप्रथम दशवकालिक का अध्ययन आवश्यक माना गया। दशकालिक के निर्माण के पूर्व आचारांग के शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन से श्रमणों को महाव्रतों की विभागत: उपस्थापना की जाती थी किन्तु दशवकालिक के निर्माण के बाद दशवकालिक के चतुर्थ अध्ययन से महाव्रतों की उपस्थापना की जाने लगी। अतीतकाल में श्रमणों को भिक्षानाही बनने के लिए आचारांग सूत्र के दूसरे अध्ययन के लोकविजय के पांचवें उद्देशक को जानना आवश्यक था / पर जब दशवकालिक का निर्माण हो गया तो उसके पांचवें अध्ययन पिण्डैपणा को जानने वाला श्रमण भी भिक्षाग्राही हो गया। इससे यह स्पष्ट है कि दशवकालिक का कितना अधिक महत्त्व है। इस पर अनेक व्याख्याएं हुई हैं, विवेचन लिखे गए हैं। स्वर्गीय युवाचार्य पं. प्रवर श्री मधुकर-मुनि जी महाराज की प्रबल प्रेरणा से पागम-बत्तीसी का मंगलमय कार्य प्रारम्भ हुआ। मेरे लघु भ्राता श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री का स्नेह भरा आग्रह था कि मुझे दशवैकालिक सूत्र का सम्पादन करना है, उस पर विवेचन आदि भी लिखना है। छोटे भाई के प्रेम भरे आग्रह को मैं कैसे टाल सकती थी? मैंने इस महान कार्य को करने का संकल्प किया, पर शुभ कार्य में विघ्न आते ही हैं। मुझे भी इस कार्य को सम्पन्न करने में अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ा। मेरे संयमी जीवन की प्राधारस्तम्भ, जिनके कारण मैं सदा निश्चितता का अनुभव करती रही, जिनकी छत्रछाया में मेरे जीवन को सुखद घड़ियां बीती, वे थी-प्रतिभामूर्ति मातेश्वरी महासती प्रभावती जी, जिनका 27 जनवरी 1982 को संथारे के साथ स्वर्गवास हो गया। उनके स्वर्गवास से मन को भारी प्राघात लगा, मेरा भी स्वास्थ्य शिथिल ही रहा, इसलिए न चाहते हए भी विलम्ब होता ही चला गया। इसका संपादन मैंने उदयपुर वर्षावास में सन् 1980 में प्रारम्भ किया। डुगला वर्षावास में प्रवचन प्रादि अन्य आवश्यक कार्यों में व्यस्त रहने के कारण कार्य में प्रगति न हो सकी, जोधपुर और मदनगंज के वर्षावास में उसे सम्पन्न किया। आगम का सम्पादनकार्य अन्य सम्पादन कार्यों से अधिक कठिन है, क्योंकि आगम की भाषा और भावधारा वर्तमान युग के भाव और भाषा-धारा से बहुत ही पृथक है। जिस युग में इन आगमों का संकलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org