Book Title: Agam 13 Rajprashniya Sutra Hindi Anuwad Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar View full book textPage 7
________________ आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्निय' करके ईशान कोण में गये । वैक्रिय समुद्घात किया । वैक्रिय समुद्घात करके संख्यात योजन का रत्नमय दंड बनाया । कर्केतन रत्न, वज्र-रत्न, वैडूर्यरत्न, लोहिताक्ष रत्न, मसारगल्ल रत्न, हंसगर्भ रत्न, पुलक रत्न, सौगन्धिक रत्न, ज्योति रत्न, अंजनरत्न, अंजनपुलक रत्न, रजत रत्न, जातरूप रत्न, अंक रत्न, स्फटिक रत्न और रिष्ट रत्न । इन रत्नों के यथा बादर पुद्गलों को अलग किया और फिर यथासूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण किया, ग्रहण करके पुनः दूसरी बार वैक्रिय समुद्घात करके उत्तर वैक्रिय रूपों की विकुर्वणा की। उत्तर वैक्रिय रूपों की विकुर्वणा करके वे उत्कृष्ट त्वरा वाली, चपल, चंड, वेगशील, आँधी जैसी तेज दिव्य गति से तिरछे-तिरछे असंख्यात द्वीप समूहों को पार करते हुए जहाँ जम्बूद्वीपवर्ती भारतवर्ष की आमलकल्पा नगरी थी, आम्रशालवन चैत्य था और उसमें भी जहाँ श्रमण भगवान महावीर बिराजमान थे, वह आकर श्रमण भगवान महावीर की तीन बार प्रदक्षिणा की, उनको वंदन-नमस्कार किया और इस प्रकार कहा । हे भदन्त ! हम सूर्याभदेव के आभियोगिक देव आप देवानुप्रिय को वंदन करते हैं, नमस्कार करते हैं, आपका सत्कार-सम्मान करते हैं एवं कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, चैत्यरूप आप देवानुप्रिय की पर्युपासना करते हैं सूत्र -९ 'हे देवो!' इस प्रकार से सूर्याभदेव के आभियोगिक देवों को सम्बोधित कर श्रमण भगवान महावीर ने उन देवों से कहा-हे देवो ! यह पुरातन है, यह देवों का जीतकल्प है, यह देवों के लिए कृत्य है । करणीय है, यह आचीर्ण है, यह अनुज्ञात है और वन्दन-नमस्कार करके अपने-अपने नाम-गोत्र कहते हैं, यह पुरातन है यावत् हे देवो ! यह अभ्यनुज्ञात है। सूत्र-१० तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर के इस कथन को सूनकर उन आभियोगिक देवों ने हर्षित यावत् विकसितहृदय होकर भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया । वे उत्तर-पूर्व दिगभाग में गए । वहाँ जाकर उन्होंने वैक्रिय समुद्घात किया और संख्यात योजन का दण्ड बनाया जो कर्केतन यावत् रिष्टरत्नमय था और उन रत्नों के यथाबादर पुद्गलों को अलग किया । दुबारा वैक्रिय समुद्घात करके, जैसे-कोई तरुण, बलवान, युगवान, युवा नीरोग, स्थिर पंजे वाला, पूर्णरूप से दृढ़ पुष्ट हाथ पैर पृष्ठान्तर वाला, अतिशय निचित परिपुष्ट मांसल गोल कंधोंवाला, चर्मेष्टक, मुद्गर और मुक्कों की मार से सघन, पुष्ट सुगठित शरीर वाला, आत्मशक्ति सम्पन्न, युगपत् उत्पन्न तालवृक्षयुगलके समान सीधी लम्बी और पुष्ट भुजाओं वाला, लांघने-कूदने-वेगपूर्वक गमन एवं मर्दन करनेमें समर्थ, कलाविज्ञ, दक्ष, पटु, कुशल, मेधावी एवं कार्यनिपुण भृत्यदारक सीकों से बनी या मूठवाली अथवा बाँस की सीकों से बनी बुहारी लेकर राजप्रांगण, अन्तःपुर, देवकुल, सभा, प्याऊ, आराम को बिना किसी घबराहट चपलता सम्भ्रम और आकलता के निपणतापर्वक चारों तरफ से प्रमार्जित करता है, वैसे ही सर्याभदेव के उन आभियोगिक देवोंने भी संवर्तक वायु विकुर्वणा की । आसपास चारों ओर एक योजन भूभागमें जो कुछ भी घास पत्ते आदि थे उन सभी को चुन-चुनकर एकान्त स्थानमें ले जा कर फेंक दिया और शीघ्र ही अपने कार्य से निवृत्त हुए। इसके पश्चात् उन आभियोगिक देवों ने दुबारा वैक्रिय समुद्घात किया । जैसे कोई तरुण यावत् कार्यकुशल सींचने वाला नौकर जल से भरे एक बड़े घड़े, वारक को लेकर आराम-फुलवारी यावत् परव को बिना किसी उतावली के यावत् सब तरफ से सींचता है, इसी प्रकार से सूर्याभदेव के उन आभियोगिक देवों ने आकाश में घुमड़घुमड़कर गरजने वाले और बिजलियों की चमचमाहट से युक्त मेघों की विक्रिया की और चारों ओर एक योजन प्रमाण गोलाकार भूमि में इस प्रकार से सुगन्धित गंधोदक बरसाया कि जिससे न भूमि जलबहुल हुई, न कीचड़ हुआ । इस प्रकार की मेघ वर्षा करके उस स्थान को निहितरज, भ्रष्टरज, उपशांतरज, प्रशांतरज वाला बना दिया । ऐसा करके वे अपने कार्य से विरत हुए। तदनन्तर उन आभियोगिक देवों ने तीसरी बार वैक्रिय समुद्घात करके जैसे कोई तरुण यावत् कार्यकुशल मालाकारपुत्र एक बड़ी पुष्पछादिका, पुष्पपटलक, अथवा पुष्पचंगेरिका से कचग्रहवत् फूलों को हाथ में लेकर मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 7Page Navigation
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