Book Title: Agam 13 Rajprashniya Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 14
________________ आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय' अपने-अपने नाम गोत्र का उच्चारण करते हैं । अत एव हे सूर्याभ ! तुम्हारी यह सारी प्रवृत्ति पुरातन यावत् संमत है सूत्र-१९ तब वह सूर्याभदेव श्रमण भगवान महावीर के इस कथन को सूनकर अतीव हर्षित हुआ यावत् विकसित हृदयवाला हुआ और श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार करके यथोचित स्थान पर स्थित होकर शुश्रूषा करता हुआ, नमस्कार करता हुआ, अभिमुख विनयपूर्वक दोनों हाथ जोड़कर अंजलि कर पर्युपासना करने लगा। सूत्र - २० तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर ने सूर्याभदेव को, और उस उपस्थित विशाल परिषद् को यावत् धर्मदेशना सुनाई । देशना सूनकर परिषद् जिस दिशा से आई थी वापस उसी ओर लौट गई। सूत्र-२१ तदनन्तर वह सूर्याभदेव श्रमण भगवान महावीर प्रभु ने धर्मश्रवण कर और हृदय में अवधारित कर हर्षित एवं संतुष्ट यावत् आह्लादित हृदय हुआ । अपने आसन से खड़े होकर उसने श्रमण भगवान महावीर को वन्दननमस्कार किया और इस प्रकार प्रश्न किया-भगवन् ! मैं सूर्याभदेव क्या भवसिद्धिक हूँ अथवा अभवसिद्धिक ? सम्यग्दृष्टि हूँ या मिथ्यादृष्टि ? परित्त संसारी हूँ अथवा अनन्त संसारी ? सुलभबोधि हूँ अथवा दुर्लभबोधि ? आराधक अथवा विराधक ? चरम शरीरी हूँ अथवा अचरम शरीरी ? 'सूर्याभ !' इस प्रकार से सूर्याभदेव को सम्बोधित कर श्रमण भगवान महावीर ने सूर्याभदेव को उत्तर दिया-हे सूर्याभ ! तुम भवसिद्धिक हो, अभवसिद्धिक नहीं हो, यावत् चरम शरीरी हो, अचरम शरीरी नहीं हो । सूत्र - २२ तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर के इस कथन को सूनकर उस सूर्याभदेव ने हर्षित सन्तुष्ट चित्त से आनन्दित और परम प्रसन्न होते हुए श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और निवेदन किया-हे भदन्त ! आप सब जानते हैं और सब देखते हैं । सर्व काल को आप जानते और देखते हैं; सर्व भावों को आप जानते और देखते हैं । अत एव हे देवानुप्रिय ! पहले अथवा पश्चात् लब्ध, प्राप्त एवं अधिगत इस प्रकार की मेरी दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति तथा दिव्य देवप्रभाव को भी जानते और देखते हैं । इसलिए आप देवानुप्रिय की भक्तिवश होकर मैं चाहता हूँ कि गौतम आदि निर्ग्रन्थों के समक्ष इस दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव तथा बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्यविधि को प्रदर्शित करूँ । सूत्र- २३ तब सूर्याभदेव के इस प्रकार निवेदन करने पर श्रमण भगवान महावीर ने सूर्याभदेव के इस कथन का आदर नहीं किया, उसकी अनुमोदना नहीं की, किन्तु मौन रहे । तत्पश्चात् सूर्याभदेव ने दूसरी और तीसरी बार भी पुनः इसी प्रकार से श्रमण भगवान महावीर से निवेदन किया-हे भगवन् ! आप सब जानते हैं आदि, यावत् नाट्यविधि प्रदर्शित करना चाहता हूँ। इस प्रकार कहकर उसने दाहिनी ओर से प्रारम्भ कर श्रमण भगवान महावीर की तीन बार प्रदक्षिणा की । वन्दन-नमस्कार किया और उत्तर पूर्व दिशा में गया । वहाँ जाकर वैक्रियसमुद्घात करके संख्यात योजन लम्बा दण्ड नीकाला । यथाबादर पुद्गलों को दूर करके यथासूक्ष्म पुद्गलों का संचय किया । इसके बाद पुनः दुबारा वैक्रिय समुद्घात करके यावत् बहुसमरमणीय भूमिभाग की रचना की । जो पूर्ववर्णित आलिंग पुष्कर आदि के समान सर्वप्रकार से समतल यावत् रूप, रस, गंध और स्पर्श वाले मणियों से सुशोभित था । उस अत्यन्त सम और रमणीय भूमिभाग के मध्यातिमध्य भाग में प्रेक्षागृहमंडप की रचना की । वह अनेक सैकड़ों स्तम्भों पर संनिविष्ट था इत्यादि वर्णन पूर्ववत् । उस प्रेक्षागृह मंडप के अन्तर अतीव समतल, रमणीय भूमिभाग, चन्देवा, रंगमंच और मणिपीठिका की विकुर्वणा की और उस मणिपीठिका के ऊपर फिर उसने पादपीठ, छत्र आदि से युक्त सिंहासन की रचना यावत् उसका ऊपरी भाग मुक्तादामों से शोभित हो रहा था। तत्पश्चात् उस सूर्याभदेव ने श्रमण भगवान महावीर की ओर देखकर प्रणाम किया और 'हे भगवन् ! मुझे मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 14

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