Book Title: Agam 13 Rajprashniya Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय' आने के कारण रूप में जो उपमा दी, वह तु बुद्धि से कल्पित एक दृष्टान्त मात्र है । परन्तु भदन्त ! किसी एक दिन मैं अपने अनेक गणनायक, दंडनायक, राजा, ईश्वर, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, इब्भ, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, मंत्री, महामंत्री, गणक, दौवारिक, अमात्य, चेट, पीठमर्दक, नागरिक, व्यापारी, दूत, संधिपाल आदि के साथ अपनी बाह्य उपस्थानशाला में बैठा हुआ था । उसी समय नगर-रक्षक चुराई हुई वस्तु और साक्षी सहित गरदन और पीछे दोनों हाथ बांधे एक चोर को पकड़ कर मेरे सामने लाये । तब मैंने उसे जीवित ही एक लोहे की कुंबी में बंद करवा कर अच्छी तरह लोहे के ढक्कन से उसका मुख ढंक दिया । फिर गरम लोहे एवं रांगे से उस पर लेप करा दिया और देखरेख के लिए अपने विश्वासपात्र पुरुषों को नियुक्त कर दिया।
तत्पश्चात् किसी दिन मैं उस लोहे की कुंभी के पास गया । कुंभी को खुलवाया । मैंने स्वयं उस पुरुष को देखा तो वह मर चूका था । किन्तु उस लोह कुंभी में राई जितना न कोई छेद था, न कोई विवर था, न कोई अंतर था और न कोई दरार थी कि जिस में से उस पुरुष का जीव बाहर नीकल जाता । यदि उस लोहकुंभी में कोई छिद्र यावत् दरार होती तो हे भदन्त ! मैं यह मान लेता कि भीतर बंद पुरुष का जीव बाहर नीकल गया है तब आपकी बात पर विश्वास कर लेता, प्रतीति कर लेता एवं अपनी रुचि का विषय बना लेता कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, किन्तु जीव शरीर रूप नहीं और शरीर जीव रूप नहीं । लेकिन उस लोहकुंभीमें जब कोइ छिद्र ही नहीं है यावत् जीव नहीं है तो हे भदन्त ! मेरा यह मंतव्य ठीक है जो जीव है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है
केशी कमारश्रमण ने कहा-जैसे कोई कटाकारशाला हो और वह भीतर-बाहर चारों ओर लीपी हुई हो, अच्छी तरह से आच्छादित हो, उसका द्वार भी गुप्त हो और हवा का प्रवेश भी जिसमें नहीं हो सके, ऐसी गहरी हो। अब यदि उस कूटाकारशाला में कोई पुरुष भेरी और बजाने के लिए डंडा लेकर घूस जाए और घूसकर उस कूटाकारशाला के द्वार आदि को चारों ओर से बंद कर दे कि जिससे कहीं पर भी थोड़ा-सा अंतर नहीं रहे और उसके बाद उस कूटाकारशाला के बीचों-बीच खड़े होकर डंडे से भेरी को जोर-जोर से बजाए तो हे प्रदेशी ! तुम्हीं बताओ कि वह भीतर की आवाज बाहर नीकलती है अथवा नहीं? हाँ, भदन्त ! नीकलती है । हे प्रदेशी ! क्या उस कूटाकारशाला में कोई छिद्र यावत् दरार है कि जिसमें से वह शब्द बाहर नीकलता हो ? हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। इसी प्रकार प्रदेशी ! जीव भी अप्रतिहत गति वाला है । वह पृथ्वी का भेदन कर, शिला का भेदन कर, पर्वत का भेदन कर भीतर से बाहर नीकल जाता है । इसीलिए हे प्रदेशी ! तुम यह श्रद्धा करो की जीव और शरीर भिन्नभिन्न हैं, जीव शरीर नहीं है और शरीर जीव नहीं है।
प्रदेशी राजा ने कहा-भदन्त ! यह आप द्वारा प्रयुक्त उपमा तो बुद्धिविशेष रूप है, इससे मेरे मन में जीव और शरीर की भिन्नता का विचार युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता है । क्योंकि किसी समय मैं अपनी बाहरी उपस्थानशाला में गणनायक आदि के साथ बैठा था । तब मेरे नगररक्षकों ने साक्षी सहित यावत् एक चोर पुरुष को उपस्थित किया । मैंने उस पुरुष को प्राणरहित कर दिया और लोहकुंभी में डलवा दिया, ढक्कन से ढाँक दिया यावत् अपने विश्वासपात्र पुरुषों को रक्षा के लिए नियुक्त कर दिया । बाद किसी दिन जहाँ वह कुंभी थी, मैं वहाँ आया । उस लोहकुंभी को उघाड़ा तो उसे कृमिकुल से व्याप्त देखा । लेकिन उस लोहकुंभी में न तो कोई छेद था, न कोई दरार थी कि जिसमें से वे जीव बाहर से उसमें प्रविष्ट हो सके । यदि उस लोहकुंभी में कोई छेद होता यावत् दरार होती तो यह माना जा सकता था-वे जीव उसमें से होकर कुंभी में प्रविष्ट हुए हैं और तब मैं श्रद्धा कर लेता कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है । लेकिन जब उस लोहकुंभी में कोई छेद आदि नहीं थे, फिर भी उसमें जीव प्रविष्ट हो गए । अतः मेरी यह प्रतीति सुप्रतिष्ठित है कि जीव और शरीर एक ही हैं।
केशी कुमारश्रमण ने कहा-हे प्रदेशी ! क्या तुमने पहले कभी अग्नि से तपाया हुआ लोहा देखा है ? हाँ, भदन्त ! देखा है । तब हे प्रदेशी ! तपाये जाने पर वह लोहा पूर्णतया अग्नि रूप में परिणत हो जाता है या नहीं? हाँ, हो जाता है । हे प्रदेशी ! उस लोहे में कोई छिद्र आदि हैं क्या, जिससे वह अग्नि बाहर से उसके भीतर प्रविष्ट हो गई ? भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । तो इसी प्रकार हे प्रदेशी ! जीव भी अप्रतिहत गतिवाला है, जिससे वह
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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