Book Title: Agam 13 Rajprashniya Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय' वेदना उत्पन्न हई। विषम पित्तज्वर से सारे शरीर में जलन होने लगी।
तत्पश्चात् प्रदेशी राजा सूर्यकान्ता देवी के इस उत्पात को जानकर भी उसके प्रति मन में लेशमात्र भी द्वेषरोष न करते हुए जहाँ पौषधशाला थी वहाँ आया । पौषधशाला की प्रमार्जना की, उच्चारप्रस्रवणभूमि का प्रतिलेखन किया । फिर दर्भ का सथारा बिछाया और उस पर आसीन होकर पूर्व दिशा की ओर मुख कर पर्यंकासन से बैठकर दोनों हाथ जोड़ आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार कहा-अरिहंतों यावत् सिद्धगति को प्राप्त भगवंतों को नमस्कार हो । मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक केशी कुमारश्रमण को नमस्कार हो । यहाँ स्थित मैं वहाँ बिराजमान भगवान की वन्दना करता हूँ। वहाँ पर बिराजमान वे भगवन् यहाँ रहकर वन्दना करने वाले मुझे देखें । पहले भी मैंने केशी कुमारश्रमण के समक्ष स्थूल प्राणातिपात यावत् स्थूल परिग्रह का प्रत्याख्यान किया है। अब इस समय भी मैं उन्हीं भगवंतों की साक्षी से सम्पूर्ण प्राणातिपाति यावत समस्त परिग्रह, क्रोध यावत मिथ्य शल्य का प्रत्याख्यान करता हूँ। अकरणीय समस्त कार्यों एवं मन-वचन-काय योग का प्रत्याख्यान करता हूँ और जीवनपर्यंत के लिए सभी अशन-पान आदि रूप चारों प्रकार के आहार का भी त्याग करता हूँ।
परन्तु मुझे यह शरीर इष्ट है, मैंने यह ध्यान रखा है कि इसमें कोई रोग आदि उत्पन्न न हो परन्तु अब अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक के लिए इस शरीर का भी परित्याग करता हूँ | इस प्रकार के निश्चय के साथ पुनः आलोचना और प्रतिक्रमण करके समाधिपूर्वक मरण समय के प्राप्त होने पर काल करके सौधर्मकल्प के सूर्याभविमान की उपपात सभा में सूर्याभदेव के रूप में उत्पन्न हुआ, इत्यादि ।
'प्रदेशी राजा' के अधिकार का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
तत्काल उत्पन्न हुआ वह सूर्याभदेव पाँच पर्याप्तियों से पर्याप्त हुआ । आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति, श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति, भाषा-मनःपर्याप्ति । इस प्रकार से हे गौतम ! उस सूर्याभदेव ने यह दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवधति और दिव्य उपार्जित किया है, प्राप्त किया है और अधिगत किया है। सूत्र - ८२
गौतम-भदन्त ! उस सूर्याभदेव की आयुष्यमर्यादा कितने काल की है ? गौतम ! चार पल्योपम की है। भगवन् ! आयुष्य पूर्ण होने, भवक्षय और स्थितिक्षय होने के अनन्तर सूर्याभदेव उस देवलोक से च्यवन करके कहाँ जाएगा ? कहाँ उत्पन्न होगा ? गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में जो कुल आढ्य, दीप्त, विपुल बड़े कुटुम्ब परिवार वाले, बहुत से भवनों, शय्याओं, आसनों और यानवाहनों के स्वामी, बहुत से धन, सोने-चाँदी के अधिपति, अर्थोपार्जन के व्यापार-व्यवसाय में प्रवृत्त एवं दीनजनों को जिनके यहाँ से प्रचुर मात्रा में भोजनपान प्राप्त होता है, सेवा करने के लिए बहुत से दास-दासी रहते हैं, बहुसंख्यक गाय, भैंस, भेड़ आदि पशुधन है और जिनका बहुत से लोगों द्वारा भी पराभव नहीं किया जा सकता, ऐसे प्रसिद्ध कुलों में से किसी एक कुल में वह पुत्र रूप से उत्पन्न होगा । तत्पश्चात् उस दारक के गर्भ में आने पर माता-पिता की धर्ममें दृढ़ प्रतिज्ञा-श्रद्धा होगी । बाद नौ मास और साढ़े सात रात्रि-दिन बीतने पर दारक की माता सुकुमार हाथ-पैर वाले शुभ लक्षणों एवं परिपूर्ण पाँच इन्द्रियों और शरीरवाले, सामुद्रिक शास्त्रमें बताये लक्षणों, तिल आदि व्यंजनों और गुणों से युक्त, माप, तोल और नाप में बराबर, सुजात, सर्वांगसुन्दर, चन्द्रमा के समान सौम्य आकार वाले, कमनीय, प्रियदर्शन एवं सरूपवान् पुत्र को जन्म देगी
तब उस दारक के माता-पिता प्रथम दिवस स्थितिपतिता करेंगे। तीसरे दिन चन्द्र और सूर्यदर्शन सम्बन्धी क्रियाएं करेंगे । छठे दिन रात्रिजागरण करेंगे । बारहवें दिन जातकर्म सम्बन्धी अशुचि की निवृत्ति के लिए घर झाड़बुहार और लीप-पोत कर शुद्ध करेंगे । घर की शुद्धि करने के बाद अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य रूप विपुल भोजनसामग्री बनवायेंगे और मित्रजनों, ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजन-सम्बन्धियों एवं दास-दासी आदि परिजनों, परिचितों को आमंत्रित करेंगे । इसके बाद स्नान, बलिकर्म, तिलक आदि कौतुक-मंगल-प्रायश्चित्त यावत् आभूषणों से शरीर को अलंकृत करके भोजनमंडप में श्रेष्ठ आसनों पर सुखपूर्वक बैठकर मित्रों यावत् परिजनों के साथ
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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