Book Title: Agam 13 Rajprashniya Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय' यावत् वहन करने में समर्थ नहीं है । इसीलिए प्रदेशी ! तुम यह श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव शरीर नहीं है और शरीर जीव नहीं। सूत्र - ७०
हे भदन्त ! आपकी यह उपमा वास्तविक नहीं है, इससे जीव और शरीर की भिन्नता नहीं मानी जा सकती है । लेकिन जो प्रत्यक्ष कारण मैं बताता हूँ, उससे यही सिद्ध होता है कि जीव और शरीर एक ही हैं । हे भदन्त ! किसी एक दिन मैं गणनायक आदि के साथ बाहरी उपस्थानशाला में बैठा था । उसी समय मेरे नगररक्षक चोर पकड़ कर लाये । तब मैंने उस पुरुष को जीवित अवस्था में तोला । तोलकर फिर मैंने अंगभंग किये बिना ही उसको जीवन रहित कर दिया-फिर मैंने उसे तोला। उस पुरुष का जीवित रहते जो तोल था उतना ही मरने के बाद था । किसी भी प्रकार का अंतर दिखाई नहीं दीया, न उसका भार बढ़ा और न कम हुआ, इसलिए हे भदन्त ! यदि उस पुरुष के जीवितावस्था के वजन से मृतावस्था के वजन में किसी प्रकार की न्यूनाधिकता हो जाती, तो मैं इस बात पर श्रद्धा कर लेता कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव और शरीर एक नहीं है । लेकिन भदन्त ! मैंने उस पुरुष की जीवित और मृत अवस्थामें किये गये तोल में किसी प्रकार की भिन्नता, न्यूनाधिकता यावत् लघुता नहीं देखी । इस कारण मेरा यह मानना समीचीन है कि जो जीव है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है किन्तु जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं है।
केशी कुमारश्रमण ने कहा-प्रदेशी ! तुमने कभी धींकनी में हवा भरी है? प्रदेशी-हाँ भदन्त ! हे प्रदेशी ! जब वायु से भर कर उस धींकनी को तोला तब और वायु को नीकाल कर तोला तब तुमको उसके वजन में कुछ न्यूनाधिकता यावत् लघुता मालूम हुई ? भदन्त ! यह अर्थ तो समर्थ नहीं है । तो इसी प्रकार हे प्रदेशी ! जीव के अगरुलघत्व को समझ कर उस चोर के शरीर के जीवितावस्था में किये गये तोल में और मतावस्था में किये गये तोल में कुछ भी नानात्व यावत् लघुत्व नहीं है। इसीलिए हे प्रदेशी ! तुम यह श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, किन्तु जीव-शरीर एक नहीं है। सूत्र - ७१
प्रदेशी राजा ने पुनः कहा-हे भदन्त ! आपकी यह उपमा बुद्धिप्रेरित होने से वास्तविक नहीं है । इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि जीव और शरीर पृथक्-पृथक् हैं । क्योंकि भदन्त ! बात यह है कि किसी समय मैं अपने गणनायकों आदि के साथ बाह्य उपस्थानशाला में बैठा था । यावत् नगररक्षक एक चोर पकड़ कर लाये । तब मैंने उस पुरुष को सभी ओर से अच्छी तरह देखा, परन्तु उसमें मुझे कहीं भी जीव दिखाई नहीं दिया । इसके बाद मैंने उस पुरुष के दो टुकड़े कर दिये । टुकड़े करके फिर मैंने अच्छी तरह सभी ओर से देखा । तब भी मुझे जीव नहीं दिखा । इसके बाद मैंने उसके तीन, चार यावत् संख्यात टुकड़े किये, परन्तु उनमें भी मुझे कहीं पर जीव दिखाई नहीं दिया । यदि भदन्त ! मुझे टुकड़े करने पर भी कहीं जीव दिखता तो मैं श्रद्धा-विश्वास कर लेता कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव और शरीर एक नहीं है । लेकिन हे भदन्त ! जब मैंने उस पुरुष के टुकड़ों में भी जीव नहीं देखा है तो मेरी यह धारणा कि जीव शरीर है और शरीर जीव है, जीव-शरीर भिन्न-भिन्न नहीं है, सुसंगत है।
केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से कहा-हे प्रदेशी ! तुम तो मुझे उस दीन-हीन कठियारे से भी अधिक मूढ़ प्रतीत होते हो । हे भदन्त ! कौन सा दीन-हीन कठियारा ? हे प्रदेशी ! वन में रहने वाले और वन से आजीविका कमाने वाले कुछ-एक पुरुष वनोत्पन्न वस्तुओं की खोज में आग और अंगीठी लेकर लकड़ियों के वन में प्रविष्ट हुए। पश्चात् उन पुरुषों ने दुर्गम वन के किसी प्रदेश में पहुँचने पर अपने एक साथी से कहा-देवानुप्रिय ! हम इस लकड़ियों के जंगल में जाते हैं । तुम यहाँ अंगीठी से आग लेकर हमारे लिये भोजन तैयार करना । यदि अंगीठी में आग बुझ जाए तो तुम इस लकड़ी से आग पैदा करके हमारे लिए भोजन बना लेना । उनके चले जाने पर कुछ समय पश्चात् उस पुरुष ने विचार किया-चलो उन लोगों के लिए जल्दी से भोजन बना लूँ । ऐसा विचार कर वह वहाँ पहुँचा जहाँ वह काष्ठ पड़ा हुआ था । वहाँ पहुँचकर चारों ओर से उसने काष्ठ को अच्छी तरह देखा,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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