Book Title: Agam 13 Rajprashniya Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्निय' महोरगमण्डल और गन्धर्वमण्डल की रचना से युक्त मण्डलप्रविभक्ति नामक नाट्य अभिनय प्रदर्शित किया । तत्पश्चात् वृषभमण्डल, सिंहमण्डल की ललित गति अश्व गति, और गज की विलम्बित गति, अश्व और हस्ती की विलसित गति, मत्त अश्व और मत्त गज की विलसित गति, मत्त अश्व की विलम्बित गति, मत्त हस्ती की विलम्बित गति से युक्त द्रुतविलम्बित प्रविभक्ति नामक दिव्य नाट्यविधि का प्रदर्शन किया। - इसके बाद सागर प्रविभक्ति, नगर प्रविभक्ति से युक्त सागर-नागर-प्रविभक्ति नामक अपूर्व नाट्यविधि का अभिनय दिखाया । तत्पश्चात् नन्दाप्रविभक्ति, चम्पा प्रविभक्ति, नन्दा-चम्पा प्रविभक्ति नामक दिव्यनाट्य का अभिनय दिखाया । तत्पश्चात् मत्स्याण्डक, मकराण्डक, जार, मार की आकृतियों की सुरचना से युक्त मत्स्याण्डमकराण्ड-जार-मार प्रविभक्ति नामक दिव्यनाट्यविधि दिखलाई।।
तदनन्तर उन देवकमारों और देवकमारियों ने क्रमशः ककारप्रविभक्ति, खकार, गकार, धकार और ङकारप्रविभक्ति, इस प्रकार के वर्ग प्रविभक्ति नाम की दिव्य नाट्यविधियों का प्रदर्शन किया। इसी तरह से चकार-छकार -जकार-झकार-ञकार की रचना करके चकारवर्गप्रविभक्ति नामक दिव्य नाट्यविधि का अभिनय दिखाया । पश्चात् क्रमशः ट-ठ-ड-ढ-ण के आकार की सुरचना द्वारा टकारवर्ग-प्रविभक्ति नामक नाट्यविधि का प्रदर्शन किया । टकारवर्ग के अनन्तर तकार-थकार-दकार-धकार-नकार की रचना करके तकारवर्ग-प्रविभक्ति नामक नाट्यविधि को दिखलाया । तकारवर्ग के अनन्तर प, फ, ब, भ, म के आकार की रचना करके पकारवर्ग-प्रविभक्ति नामकी दिव्य नाट्यविधि का अभिनय दिखाया।
तत्पश्चात् अशोकपल्लव, आम्रपल्लव, जम्बूपल्लव, कोशाम्रपल्लव, पल्लवप्रविभक्ति नामक दिव्य नाट्यविधि प्रदर्शित की । तदनन्तर पद्मलता यावत् श्यामलता प्रविभक्ति नामक नाट्याभिनय प्रदर्शित किया । इसके पश्चात् द्रुत, विलम्बित, द्रुतविलंबित, अंचित, रिभित, अंचितरिभित, आरभट, भसोल और आरभटभसोल नामक नाट्यविधि प्रदर्शित की । तदनन्तर उत्पात निपात, संकुचित-प्रसारित भय और हर्षवश शरीर के अंगोपांगों को सिकोड़ना और फैलाना, भ्रान्त और संभ्रान्त सम्बन्धी क्रियाओं विषयक दिव्य नाट्य-अभिनय दिखाया।
तदनन्तर वे देवकुमार और देवकुमारियाँ एक साथ एक स्थान पर एकत्रित हुए यावत् दिव्य देवरमत में प्रवृत्त हो गए । तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर के पूर्व भवों सम्बन्धी चरित्र से निबद्ध एवं वर्तमान जीवन सम्बन्धी, च्यवनचरित्रनिबद्ध, गर्भसंहरणचरित्रनिबद्ध, जन्मचरित्रनिबद्ध, जन्माभिषेक, बालक्रीड़ानिबद्ध, यौवनचरित्रनिबद्ध, अभिनिष्क्रमण-निबद्ध, तपश्चरण निबद्ध, ज्ञानोत्पाद चरित्र-निबद्ध, तीर्थ-प्रवर्तन चरित्र से सम्बन्धित, परिनिर्वाण चरित्रनिबद्ध तथा चरम चरित्र निबद्ध नामक अंतिम दिव्य नाट्य-अभिनय का प्रदर्शन किया।
तत्पश्चात् सभी देवकुमारों और देवकुमारियों ने इन चतुर्विध वादिंत्रों को बजाया । अनन्तर उन ने उत्क्षिप्त, पादान्त, मंदक और रोचितावसान रूप चार प्रकार का संगीत गाया । तत्पश्चात् उन ने अंचित, रिभित, आरभट एवं भसोल इन चार प्रकार की नृत्यविधियों को दिखाया । तत्पश्चात् उन ने चार प्रकार के अभिनय प्रदर्शित किये, यथादार्शन्तिक, प्रात्यंतिक, सामान्यतोविनिपातनिक और अन्तर्मध्यावसानिक ।
तत्पश्चात् उन सभी देवकुमारों और देवकुमारियों ने गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों को दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव प्रदर्शक बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्यविधियों को दिखाकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की । वन्दन-नमस्कार करने के पश्चात् जहाँ अपना अधिपति सूर्याभदेव था वहाँ आए। दोनों हाथ जोड़कर सिर पर आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके सूर्याभदेव को 'जय विजय' से बधाया और आज्ञा वापस सौंपी। सूत्र-२५
तत्पश्चात् उस सूर्याभदेव ने अपनी सब दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवानुभाव को समेट लिया और क्षणभर में एकाकी बन गया । इसके बाद सूर्याभदेव ने श्रमण भगवान महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा की, वन्दन-नमस्कार किया । अपने पूर्वोक्त परिवार सहित जिस यान से आया था उसी दिव्य-यान पर आरूढ़
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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