Book Title: Agam 13 Rajprashniya Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय' हआ। जिस दिशा से आया था, उसी ओर लोट गया । सूत्र-२६
तदनन्तर भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया । विनयपूर्वक इस प्रकार पूछा-हे भगवन् ! सूर्याभदेव की वह सब पूर्वोक्त दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव-प्रभाव कहाँ चला गया ? कहाँ प्रविष्ट हो गया-समा गया ? हे गौतम ! सूर्याभदेव द्वारा रचित वह सब दिव्य देव ऋद्धि आदि उसके शरीर में चली गई, शरीर में प्रविष्ट हो गई।
हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि शरीर में चली गई, शरीर में अनुप्रविष्ट हो गई ? हे गौतम! जैसे कोई एक भीतर-बाहर गोबर आदि से लिपी, बाह्य प्राकार-से घिरी हुई, मजबूत किवाड़ों से युक्त गुप्त द्वारवाली निर्वात गहरी, विशाल कुटाकार-शाला हो । उस कूटाकार शाला के निकट एक विशाल जनसमूह बैठा हो। उस समय वह जनसमूह आकाश में एक बहुत बड़े मेघपटल को अथवा प्रचण्ड आँधी को आता हुआ देखे तो जैसे वह कूटाकार शाला के अंदर प्रविष्ट हो जाता है, उसी प्रकार हे गौतम ! सूर्याभदेव की वह सब दिव्य देवऋद्धि आदि उसके शरीर में प्रविष्ट हो गई-अन्तर्लीन हो गई है, ऐसा मैंने कहा है। सूत्र - २७
हे भगवन् ! उस सूर्याभदेव का सूर्याभ नामक विमान कहाँ पर कहा है ? हे गौतम ! जम्बद्वीप के मन्दर पर्वत से दक्षिण दिशा में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के रमणीय समतल भूभाग से ऊपर ऊर्ध्वदिशा में चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारा-मण्डल से आगे भी ऊंचाई में बहुत से सैकड़ों योजनों, हजारों योजनों, लाखों, करोड़ों योजनों और सैकड़ों करोड़, हजारों करोड़, लाखों करोड़ योजनों, करोड़ों करोड़ योजन को पार करने के बाद प्राप्त स्थान पर सौधर्मकल्प नामका कल्प है-वह सौधर्मकल्प पूर्व-पश्चिम लम्बा और उत्तर-दक्षिण विस्तृत है, अर्धचन्द्र के समान, सूर्य किरणों की तरह अपनी द्युति से सदैव चमचमाता, असंख्यात कोड़ाकोड़ि योजन प्रमाण उसकी लम्बाई-चौड़ाई तथा असंख्यात कोटाकोटि योजन प्रमाण उसकी परिधि है । उस सौधर्मकल्प में बत्तीस लाख विमान बताये हैं । वे सभी विमानावास सर्वात्मना रत्नोंसे बने हुए स्फटिक मणिवत् स्वच्छ यावत् अतीव मनोहर हैं
उन विमानों के मध्यातिमध्य भाग में-पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर इन चार दिशाओं में अनुक्रम से अशोक-अवतंसक, सप्तपर्ण-अवतंसक, चंपक-अवतंसक, आम्र-अवतंसक तथा मध्य में सौधर्म-अवतंसक, ये पाँच अवतंसक हैं । ये पाँचों अवतसंक भी रत्नों से निर्मित, निर्मल यावत् प्रतिरूप हैं । उस सौधर्म-अवतंसक महाविमान की पूर्व दिशा में तिरछे असंख्यातम लाख योजन प्रमाण आगे जाने पर आगत स्थान में सूर्याभदेव का सूर्याभ नामक विमान है । उसका आयाम-विष्कम्भ साढ़े बारह लाख योजन और परिधि उनतालीस लाख बावन हजार आठ सौ अड़तालीस योजन है।
वह सूर्याभ विमान चारों दिशाओं में सभी ओर से एक प्राकार से घिरा हआ है। यह प्राकार तीन सौ योजन ऊंचा है, मूल में इस प्राकार का विष्कम्भ एक सौ योजन, मध्य में पचास योजन और ऊपर पच्चीस योजन है । इस तरह यह प्राकार मूल में चौड़ा, मध्य में संकड़ा और सबसे ऊपर अल्प-पतला होने से गोपुच्छ के आकार जैसा है। यह प्राकार सर्वात्मना रत्नों से बना होने से रत्नमय है, स्फटिकमणि के समान निर्मल है यावत् प्रतिरूप-अतिशय मनोहर है । वह प्राकार अनेक प्रकार के कृष्ण, नील, लोहित, हारिद्र और श्वेत इन पाँच वर्णों वाले कपिशीर्षकों से शोभित है । ये प्रत्येक कपिशीर्षक एक-एक योजन लम्बे, आधे योजन चौड़े और कुछ कम एक योजन ऊंचे हैं तथा ये सब रत्नों से बने हुए, निर्मल यावत् बहुत रमणीय हैं।
सूर्याभदेव के उस विमान की एक-एक बाजू में एक-एक हजार द्वार कहे गए हैं । ये प्रत्येक द्वार पाँच-पाँच सौ योजन ऊंचे हैं, अढ़ाई सौ योजन चौड़े हैं और इतना ही इनका प्रवेशन है । ये सभी द्वार श्वेत वर्ण के हैं । उत्तम स्वर्णमयी स्तूपिकाओं से सुशोभित हैं । उन पर ईहामृग, वृष, अश्व, नर, मकर, विहग, सर्प, किन्नर, रुरु, सरभअष्टापद चमर, हाथी, वनलता, पद्मलता आदि के चित्राम चित्रित हैं । स्तम्भों पर बनी हई वज्ररत्नों की वेदिका से
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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