Book Title: Agam 13 Rajprashniya Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 30
________________ आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय' पर्याप्ति, श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति और भाषामनःपर्याप्ति-इन पाँच पर्याप्तियों से पर्याप्त अवस्था को प्राप्त हुआ। पाँच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्तभाव को प्राप्त होने के अनन्तर उस सूर्याभदेव को इस प्रकार का आन्तरिक विचार, चिन्तन, अभिलाष, मनोगत एवं संकल्प उत्पन्न हुआ कि-मुझे पहले क्या करना चाहिए ? और उसके अनन्तर क्या करना चाहिए? मुझे पहले क्या करना उचित है ? और बाद में क्या करना उचित है ? तथा पहले भी और पश्चात् भी क्या करना योग्य है जो मेरे हित के लिए, सुख के लिए, क्षेम के लिए, कल्याण के लिए और अनुगामी रूप से शुभानुबंध का कारण होगा? तत्पश्चात् उस सूर्याभदेव की सामानिक परिषद् के देव सूर्याभदेव के इस आन्तरिक विचार यावत् उत्पन्न संकल्प को अच्छी तरह से जानकर सूर्याभदेव के पास आए और उन्होंने दोनों हाथ जोड़ आवर्त पूर्वक मस्तक पर अंजलि करके जय-विजय शब्दों से सर्याभदेव को अभिनन्दन करके इस प्रकार कहा-आप देवानप्रिय विमान स्थित सिद्धायतन में जिनोत्सेधप्रमाण वाली एक सौ आठ जिन-प्रतिमाएं बिराजमान हैं तथा स माणवक में वज्ररत्नमय गोल समुद्गकों में बहुत-सी जिन-अस्थियाँ व्यवस्थित रूप से रखी हुई हैं । वे आप देवानुप्रिय तथा दूसरे भी बहुत से वैमानिक देवों एवं देवियों के लिए अर्चनीय यावत् पर्युपासनीय हैं । अत एव आप देवानुप्रिय के लिए उनकी पर्युपासना करने रूप कार्य करने योग्य है और यही कार्य पीछे करने योग्य है । आप देवानुप्रिय के लिए यह पहले भी श्रेयरूप है और बाद में भी यही श्रेय रूप है । यही कार्य आप देवानुप्रिय के लिए पहले और पीछे भी हितकर, सुखप्रद, क्षेमकर, कल्याणकर एवं परम्परा से सुख का साधन रूप होगा। सूत्र - ४२ तत्पश्चात वह सूर्याभदेव उन सामानिकपरिषदोपगत देवों से इस अर्थ को सनकर और हदय में अवधारित कर हर्षित, सन्तुष्ट यावत् हृदय होता हुआ शय्या से उठा और उठकर उपपात सभा के पूर्वदिग्वर्ती द्वार से नीकला, नीकलकर ह्रद पर आया, ह्रद की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशावर्ती तोरण से होकर उसमें प्रविष्ट हुआ । पुर्वदिशावर्ती त्रिसोपान पंक्ति से नीचे उतरा, जल में अवगाहन और जलमज्जन किया, जलक्रीड़ा की, जलाभिषेक किया, आचमन द्वारा अत्यन्त स्वच्छ और शूचिभूत-शुद्ध होकर ह्रद से बाहर नीकला, जहाँ अभिषेकसभा थी वहाँ आया, अभिषेकसभा की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशावर्ती द्वार से उसमें प्रविष्ट हुआ, सिंहासन के समीप आया और आकर पूर्व दिशा की ओर मुख करके उस श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठा । तदनन्तर सूर्याभदेव की सामानिक परिषद् के देवों ने आभियोगिक देवों को बुलाया और कहा-देवानुप्रियो ! तुम लोग शीघ्र ही सूर्याभदेव का अभिषेक करने हेतु महान अर्थ वाले महर्घ एवं महापुरुषों के योग्य विपुल इन्द्राभिषेक की सामग्री उपस्थित करो। तत्पश्चात् उन आभियोगिक देवों ने सामानिक देवों की इस आज्ञा को सूनकर हर्षित यावत् विकसित हृदय होते हुए दोनों हाथ जोड़ आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके विनयपूर्वक आज्ञा-वचनों को स्वीकार किया । वे उत्तरपूर्व दिग्भाग में गए और ईशानकोण में जाकर उन्होंने वैक्रिय समुद्घात किया । संख्यात योजन का दण्ड बनाया यावत् पुनः भी वैक्रिय समुद्घात करके एक हजार आठ एक हजार आठ स्वर्ण-कलशों की, रुप्यकलशों की, मणिमय कलशों की, स्वर्ण-रजतमय कलशों की, स्वर्ण-मणिमय कलशों की, रजत-मणिमय कलशों की, रूप्य-मणिमय कलशों की, बौमेय कलशों की एवं इसी प्रकार भंगारों, दर्पणों, थालों, पात्रियों, सुप्रतिष्ठानों, वात-करकों, रत्नकरंडकों, पुष्पचंगेरिकाओं यावत् मयूरपिच्छचंगेरिकाओं, पुष्पपटलकों यावत् मयूरपिच्छपटलकों, सिंहासनों, छत्रों, चामरों, तेलसमुद्गकों यावत् अंजनसमुद्गकों, ध्वजाओं, धूपकडुच्छकों की विकुर्वणा की। विकुर्वणा करके उन स्वाभाविक और विक्रियाजन्य कलशों यावत् धूपकडुच्छकों को अपने-अपने हाथों में लिया और लेकर सूर्याभविमान से बाहर नीकले । अपनी उत्कृष्ट चपल दिव्य गति से यावत् तिर्यक् लोक में असंख्यात योजनप्रमाण क्षेत्र को उलांघते हए जहाँ क्षीरोदधि समुद्र आए । कलशों में क्षीरसमुद्र के जल को भरा तथा वहाँ के उत्पल यावत् शतपत्र, सहस्रपत्र कमलों को लिया । कमलों आदि को लेकर जहाँ पुष्करोदक समुद्र था वहाँ आए, आकर पुष्करोदक को कलशों में भरा तथा वहाँ के उत्पल शतपत्र सहस्रपत्र आदि कमलों को लिया । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 30

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