Book Title: Agam 13 Rajprashniya Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय' सूत्र-४८
श्रमण भगवान महावीर ने गौतमस्वामी से इस प्रकार कहा-हे गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भरत क्षेत्र में केकयअर्ध नामक जनपद था । भवनादिक वैभव से युक्त, स्तिमित-स्वचक्रपरचक्र के भय से रहित और समृद्ध था । सर्व ऋतुओं के फल-फूलों से समृद्ध, रमणीय, नन्दनवन के समान मनोरम, प्रासादिक यावत् अतीव अतीव मनोहर था । उस केकय-अर्ध जनपद में सेयविया नामकी नगरी थी । यह नगरी भी ऋद्धि-सम्पन्न स्तिमित एवं समृद्धिशाली यावत् प्रतिरूप थी । उस सेयविया नगरी के बाहर ईशान कोण में मृगवन नामक उद्यान था । यह उद्यान रमणीय, नन्दनवन के समान सर्व ऋतुओं के फल-फूलों से समृद्ध, शुभ, सुरभिगंध यावत् प्रतिरूप था।
उस सेयविया नगरी के राजा का नाम प्रदेशी था । प्रदेशी राजा यावत महान था । किन्तु वह अधार्मिक, अधर्मिष्ठ, अधर्माख्यायी, अधर्मानुग, अधर्मप्रलोकी, अधर्मप्रजनक, अधर्मशीलसमुदाचारी तथा अधर्म से ही आजीविका चलाने वाला था । वह सदैव 'मारो, छेदन करो, भेदन करो' इस प्रकार की आज्ञा का प्रवर्तक था । उसके हाथ सदा रक्त से भरे रहते थे । साक्षात् पाप का अवतार था । प्रकृति से प्रचण्ड, रौद्र और क्षुद्र था । साहसिक था । उत्कंचन, बदमाशों और ठगों को प्रोत्साहन देने वाला, उकसाने वाला था । लांच, वंचक, धोखा देने वाला, मायावी, कपटी, कूट-कपट करने में चतुर और अनेक प्रकार के झगड़ा-फिसाद रचकर दूसरों को दुःख देने वाला था । निश्शील था । निव्रत था, निर्गुण था, निर्मर्याद था, कभी भी उसके मन में प्रत्याख्यान, पौषध, उपवास आदि करने का विचार नहीं आता था । अनेक द्विपद, चतुष्पद, सरीसृप आदि की हत्या करने, उन्हें मारने, प्राणरहित करने, विनाश करने से साक्षात् अधर्म की ध्वजा जैसा था, गुरुजनों को देखकर भी उनका आदर करने के लिए आसन से खड़ा नहीं होता था, उनका विनय नहीं करता था और जनपद को प्रजाजनों से राजकर लेकर भी उनका सम्यक् प्रकार से पालन और रक्षण नहीं करता था। सूत्र-४९
उस प्रदेशी राजा की सूर्यकान्ता रानी थी, जो सुकुमाल हाथ पैर आदि अंगोपांग वाली थी, इत्यादि । वह प्रदेशी राजा के प्रति अनुरक्त थी, और इष्ट प्रिय-शब्द, स्पर्श, यावत् अनेक प्रकार के मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोगती हुई रहती थी। सूत्र - ५०
उस प्रदेशी राजा का ज्येष्ठ पुत्र और सूर्यकान्ता रानी का आत्मज सूर्यकान्त नामक राजकुमार था । वह सुकोमल हाथ पैर वाला, अतीव मनोहर था । वह सूर्यकान्त कुमार युवराज भी था । वह प्रदेशी राजा के राज्य, राष्ट्र, बल, वाहन, कोश, कोठार, पुर और अंतःपुर की स्वयं देखभाल किया करता था। सूत्र-५१
उस प्रदेशी राजा का उम्र में बड़ा भाई एवं मित्र सरीखा चित्त नामक सारथी था । वह समृद्धिशाली यावत् बहुत से लोगों के द्वारा भी पराभव को प्राप्त नहीं करने वाला था । साम-दण्ड-भेद और उपप्रदान नीति, अर्थशास्त्र एवं विचार-विमर्श प्रधान बुद्धि में विशारद था । औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी तथा पारिणामिकी बुद्धियों से युक्त था । प्रदेशी राजा के द्वारा अपने बहुत से कार्यों में, रहस्यमय गोपनीय प्रसंगों में, निश्चय करने में, राज्य सम्बन्धी व्यवहार में पूछने योग्य था, बार-बार विशेष रूप से पूछने योग्य था । वह सबके लिए मेढ़ी के समान था, प्रमाण था, पृथ्वी समान आधार था, रस्सी समान आलम्बन था, नेत्र के समान मार्गदर्शक था, सभी स्थानों मन्त्री, अमात्य आदि पदोंमें प्रतिष्ठाप्राप्त था । सबको विचार देनेवाला था तथा चक्र की धूरा समान राज्य-संचालक था।
सूत्र -५२
उस काल और उस समय में कुणाला नामक जनपद-देश था । वह देश वैभवसंपन्न, स्तिमित-स्वपरचक्र के भय से मुक्त और धन-धान्य से समृद्ध था । उस कुणाला जनपद में श्रावस्ती नाम की नगरी थी, जो ऋद्ध, स्तिमित,
मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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