Book Title: Agam 13 Rajprashniya Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 46
________________ आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय' जड़ ही जड़ की पर्युपासना करते हैं । मुंड ही मुंड की, मूढ ही मूढों की, अपंडित ही अपंडित की, और अज्ञानी ही अज्ञानी की उपासना करते हैं ! परन्तु यह कौन पुरुष है जो जड, मुंड, मूढ, अपंडित और अज्ञानी होते हुए भी श्री-ह्री से सम्पन्न है, शारीरिक कांति से सुशोभित है ? यह पुरुष किस प्रकार का आहार करता है ? किस रूप में खाये हुए भोजन को परिणमाता है ? यह क्या खाता है, क्या पीता है, लोगों को क्या देता है, समझाता है ? यह पुरुष इतने विशाल मानव-समूह के बीच बैठकर जोर-जोर से बोल रहा है और चित्त सारथी से कहा-चित्त ! जड़ पुरुष ही जड़ की पर्युपासना करते हैं आदि । यह कौन पुरुष है जो ऊंची ध्वनि से बोल रहा है ? इसके कारण हम अपनी ही उद्यानभूमि में भी ईच्छानुसार घूम नहीं सकते हैं। तब चित्त सारथी ने कहा-स्वामिन ! ये पापित्य केशी कमारश्रमण हैं, जो जातिसम्पन्न यावत मतिज्ञान आदि चार ज्ञानोंके धारक हैं । ये आधोऽवधिज्ञान से सम्पन्न एवं अन्नजीवी हैं । तब प्रदेशी राजा ने कहा-हे चित्त ! यह पुरुष आधोऽवधिज्ञान-सम्पन्न और अन्नजीवी है ? चित्त-हाँ स्वामिन ! हैं। प्रदेशी-हे चित्त ! तो क्या यह पुरुष अभिगमनीय है ? चित्त-हाँ स्वामिन , प्रदेशी-तो फिर, चित्त! इस पुरुषके पास चलें। चित्त-हाँ, स्वामिन ! चलें। सूत्र - ६३ तत्पश्चात् चित्त सारथी के साथ प्रदेशी राजा, जहाँ केशी कुमारश्रमण बिराजमान थे, वहाँ आया और केशी कुमारश्रमण से कुछ दूर खड़े होकर बोला-हे भदन्त ! क्या आप आधोऽवधिज्ञानधारी हैं ? क्या आप अन्नजीवी हैं ? तब केशी कुमारश्रमण ने कहा-हे प्रदेशी ! जैसे कोई अंकवणिक् अथवा शंखवणिक्, दन्तवणिक्, राजकर न देने के विचार से सीधा मार्ग नहीं पूछता, इसी प्रकार हे प्रदेशी ! तुम भी विनयप्रतिपत्ति नहीं करने की भावना से प्रेरित होकर मुझसे योग्य रीति से नहीं पूछ रहे हो । हे प्रदेशी ! मुझे देखकर क्या तुम्हें यह विचार समुत्पन्न नहीं हुआ था, कि ये जड़ जड़ की पर्युपासना करते हैं, यावत् मैं अपनी ही भूमि में स्वेच्छापूर्वक घूम-फिर नहीं सकता हूँ ? प्रदेशी! मेरा यह कथन सत्य है ? प्रदेशी-हाँ, आपका कथन सत्य है। सूत्र-६४ तत्पश्चात् प्रदेशी राजा ने कहा-भदन्त ! तुम्हें ऐसा कौन सा ज्ञान और दर्शन है कि जिसके द्वारा आपने मेरे इस प्रकार के आन्तरिक यावत् मनोगत संकल्प को जाना और देखा ? तब केशी कुमारश्रमण ने कहा-हे प्रदेशी ! निश्चय ही हम निर्ग्रन्थ श्रमणों के शास्त्रों में ज्ञान के पाँच प्रकार बतलाए हैं । आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि ज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान । प्रदेशी-आभिनिबोधिक ज्ञान कितने प्रकार का है ? आभिनिबोधिक ज्ञान चार प्रकार का है-अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा । प्रदेशी-अवग्रह कितने प्रकार का है ? अवग्रह ज्ञान दो प्रकार का प्रतिपादन किया है इत्यादि धारणा पर्यन्त आभिनिबोधिक ज्ञान का विवेचन नंदीसूत्र के अनुसार जानना । प्रदेशीश्रुतज्ञान कितने प्रकार का है ? श्रुतज्ञान दो प्रकार का है, यथा अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । दृष्टिवाद पर्यन्त श्रुतज्ञान के भेदों का समस्त वर्णन नन्दीसूत्र अनुसार। भवप्रत्ययिक और क्षायोपशमिक के भेद से अवधिज्ञान दो प्रकार का है। इनका विवेचन भी नंदीसूत्र अनुसार । मनःपर्यायज्ञान दो प्रकार का कहा गया है, यथा ऋजुमति और विपुलमति । नंदीसूत्र के अनुरूप इनका भी वर्णन करना । इसी प्रकार केवलज्ञान का भी वर्णन यहाँ करना । इन पाँच ज्ञानों में से आभिनिबोधिक ज्ञान मुझे है, श्रुतज्ञान मुझे है, अवधिज्ञान भी मुझे है, मनःपर्याय ज्ञान भी मुझे प्राप्त है, किन्तु केवलज्ञान प्राप्त नहीं है। वह केवलज्ञान अरिहंत भगवंतों को होता है । इन चतुर्विध छाद्मस्थिक ज्ञानों के द्वारा हे प्रदेशी ! मैंने तुम्हारे इस प्रकार के आन्तरिक यावत् मनोगत संकल्प को जाना और देखा है। सूत्र - ६५ प्रदेशी राजा ने केशी कमारश्रमण से निवेदन किया-भदन्त ! क्या मैं यहाँ बैठ जाऊं? हे प्रदेशी ! यह उद्यानभूमि तुम्हारी अपनी है, अत एव बैठने के विषय में तुम स्वयं समझ लो । तत्पश्चात् चित्त सारथी के साथ प्रदेशी राजा केशी कुमारश्रमण के समीप बैठ गया और पूछा-भदन्त ! क्या आप श्रमण निर्ग्रन्थों की ऐसी संज्ञा है, मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 46

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