Book Title: Agam 13 Rajprashniya Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय'
तब वह चित्त सारथी उन उद्यानपालकों से इस संवाद को सुनकर एवं हृदय में धारण कर हर्षित, संतुष्ट हुआ । चित्त में आनंदित हुआ, मन में प्रीति हई | परम सौमनस्य को प्राप्त हुआ । हर्षातिरेक से विकसितहृदय होता हुआ अपने आसन से उठा, पादपीठ से नीचे ऊतरा, पादुकाएं उतारी, एकशाटिक उत्तरासंग किया और मुकुलित हस्ताग्रहपूर्वक अंजलि करके जिस ओर केशी कुमारश्रमण बिराजमान थे, उस ओर सात-आठ डग चला और फिर दोनों हाथ जोड़ आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगा-अरिहंत
वंतों को नमस्कार हो यावत् सिद्धगति को प्राप्त सिद्ध भगवंतों को नमस्कार हो । मेरे धर्माचार्य, मेरे धर्मोपदेशक केशी कुमारश्रमण को नमस्कार हो । उनकी मैं वन्दना करता हूँ | वहाँ बिराजमान वे भगवान् यहाँ विद्यमान मुझे देखें, इस प्रकार कहकर वंदन-नमस्कार किया।
इसके पश्चात् उन उद्यानपालकों का विपुल वस्त्र, गंध, माला, अलंकारों से सत्कार-सम्मान किया तथा जीविकायोग्य विपुल प्रीतिदान देकर उन्हें बिदा किया । तदनन्तर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनको आज्ञा दी-शीघ्र ही तुम चार घंटों वाला अश्वरथ जोतकर उपस्थित करो यावत् हमें इसकी सूचना दो । तब वे कौटुम्बिक पुरुष यावत् शीघ्र ही छत्र एवं ध्वजा-पताकाओं से शोभित रथ को उपस्थित कर आज्ञा वापस लौटाते हैं-कौटुम्बिक पुरुषों से रथ लाने की बात सुनकर एवं हृदय में धारण कर हृष्ट-तुष्ट यावत् विकसितहृदय होते हुए चित्त सारथी ने स्नान किया, बलिकर्म किया यावत् आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया । चार घण्टों वाले रथ पर आरूढ़ होकर कोरंट पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र को धारण कर विशाल सुभटों के समुदाय सहित रवाना हुआ । वहाँ पहुँच कर पर्युपासना करने लगा। केशी कुमारश्रमण ने धर्मोपदेश दिया । इत्यादि पूर्ववत् जानना। सूत्र - ६०
तत्पश्चात् धर्म श्रवण कर और हृदय में धारण कर हर्षित, सन्तुष्ट, चित्त में आनंदित, अनुरागी, परम सौम्यभाव युक्त एवं हर्षातिरेक से विकसितहृदय होकर चित्त सारथी ने केशी कुमारश्रमण से निवेदन किया-हे भदन्त ! हमारा प्रदेशी राजा अधार्मिक है, यावत् राजकर लेकर भी समीचीन रूप से अपने जनपद का पालन एवं रक्षण नहीं करता है । अत एव आप दे वानुप्रिय ! यदि प्रदेशी राजा को धर्म का आख्यान करेंगे तो प्रदेशी राजा के लिए, साथ ही अनेक द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी, सरीसृपों आदि के लिए तथा बहुत से श्रमणों, महाणों एवं भिक्षुओं आदि के लिए बहुत-बहुत गुणकारी होगा । यदि वह धर्मोपदेश प्रदेशी के लिए हितकर हो जाता है तो उससे जनपद को भी बहुत लाभ होगा। सूत्र - ६१
केशी कुमारश्रमण ने चित्त सारथी को समझाया-हे चित्त ! जीव निश्चय ही इन चार कारणों से केवलिभाषित धर्म को सूनने का लाभ प्राप्त नहीं कर पाता है । १. आराम में अथवा उद्यान में स्थित श्रमण या माहन के अभिमुख जो नहीं जाता है, स्तुति, नमस्कार, सत्कार एवं सम्मान नहीं करता है तथा कल्याण, मंगल, देव एवं विशिष्ट ज्ञान स्वरूप मानकर जो उनकी पर्यपासना नहीं करता है; जो अर्थ, हेतओं, प्रश्नों को, कारणों को, व्याख्याओं को नहीं पूछता है, तो हे चित्त ! वह जीव केवलि-प्रज्ञप्त धर्म को सून नहीं पाता है। २. उपाश्रय में स्थित श्रमण आदि का वन्दन, यावत् उनसे व्याकरण नहीं पूछता, तो हे चित्त ! वह जीव केवलि-भाषित धर्म को सून नहीं पाता है । ३. गोचरी-गये हुए श्रमण अथवा माहन का सत्कार यावत् उनकी पर्युपासना नहीं करता तथा विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य से उन्हें प्रतिलाभित नहीं करता, एवं शास्त्र के अर्थ यावत् व्याख्या को उनसे नहीं पूछता, तो चित्त ! केवली भगवान द्वारा निरूपित धर्म को सून नहीं पाता है । ४. कहीं श्रमण या माहन का सुयोग मिल जाने पर भी वहाँ अपने आप को छिपाने के लिए, वस्त्र से, छत से स्वयं को आवृत्त कर लेता है, एवं उनसे अर्थ आदि नहीं पूछता है, तो हे चित्त! वह जीव केवलिप्रज्ञप्त धर्म श्रवण करने का अवसर प्राप्त नहीं कर सकता है
उक्त चार कारणों से हे चित्त ! जीव केवलिभाषित धर्म श्रवण करने का लाभ नहीं ले पाता है, किन्तु हे चित्त ! इन चार कारणों से जीव केवलिप्रज्ञप्त धर्म को सूनने का अवसर प्राप्त कर सकता है । १. आराम अथवा
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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