Book Title: Agam 13 Rajprashniya Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 42
________________ आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय' सूत्र - ५६ तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने किसी समय महाप्रयोजनसाधक यावत् प्राभृत तैयार किया और चित्त सारथी को बुलाया । उससे कहा-हे चित्त ! तुम वापस सेयविया नगरी जाओ और महाप्रयोजनसाधक यावत् इस उपहार को प्रदेशी राजा के सन्मुख भेंट करना तथा मेरी ओर से विनयपूर्वक उनसे निवेदन करना कि आपने मेरे लिये जो संदेश भिजवाया है, उसे उसी प्रकार अवितथ, प्रमाणिक एवं असंदिग्ध रूप से स्वीकार करता हूँ। चित्त सारथी को सम्मानपूर्वक बिदा किया। तत्पश्चात् जितशत्रु राजा द्वारा बिदा किये गये चित्त सारथी ने उस महाप्रयोजन-साधक यावत् उपहार को ग्रहण किया यावत् जितशत्रु राजा के पास से रवाना होकर श्रावस्ती नगरी के बीचों-बीच से नीकला । राजमार्ग पर स्थित अपने आवास में आया और उस महार्थक यावत उपहार को एक ओर रखा । फिर स्नान किया, र को विभूषित किया, कोरंट पुष्प की मालाओं से युक्त छत्र को धारण कर विशाल जनसमुदाय के साथ पैदल ही राजमार्ग स्थित आवासगृह से नीकला और श्रावस्ती नगरी के बीचों-बीच से चलता हआ जहाँ कोष्ठक चैत्य था, जहाँ केशी कुमारश्रमण बिराजमान थे, वहाँ आकर केशी कुमारश्रमण से धर्म सूनकर यावत् इस प्रकार निवेदन किया-भगवन् ! 'प्रदेशी राजा के लिए यह महार्थक यावत् उपहार ले जाओ' कहकर जितशत्रु राजा ने आज मुझे बिदा किया है । अत एव हे भदन्त ! मैं सेयविया नगरी लौट रहा हूँ। हे भदन्त ! सेयविया नगरी प्रासादीया, प्रतिरूपा है। अत एव हे भदन्त ! आप सेयविया नगरी में पधारने की कृपा करें। इस प्रकार से चित्त सारथी द्वारा प्रार्थना किये जाने पर भी केशी कुमारश्रमण ने चित्त सारथी के कथन का आदर नहीं किया । वे मौन रहे । तब चित्त सारथी ने पुनः दूसरी और तीसरी बार भी इसी प्रकार कहा-हे भदन्त ! प्रदेशी राजा के लिए महाप्रयोजन साधक उपहार देकर जितशत्रु राजा ने मुझे बिदा कर दिया है । अत एव आप वहाँ पधारने की अवश्य कृपा करें। चित्त सारथी द्वारा दूसरी और तीसरी बार भी इसी प्रकार से बिनती किये जाने पर केशी कुमारश्रमण ने चित्त सारथी से कहा-हे चित्त ! जैसे कोई एक कृष्णवर्ण एवं कृष्णप्रभा वाला वनखण्ड हो तो हे चित्त ! वह वनखण्ड अनेक द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी, सरीसृपों आदि के गमन योग्य है, अथवा नहीं है? हाँ, भदन्त ! वह उनके गमन योग्य होता है। इसके पश्चात् पुनः केशी कुमारश्रमण ने चित्त सारथी से पूछा-और यदि उसी वनखण्ड में, हे चित्त ! उन बहुत-से द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी और सर्प आदि प्राणियों के रक्त-माँस को खाने वाले भीलुंगा नामक पाप शकुन रहते हों तो क्या वह वनखण्ड उन अनेक द्विपदों यावत् सरीसृपों के रहने योग्य हो सकता है ? चित्त ने उत्तर दिया-यह अर्थ समर्थ नहीं है । पुनः केशी कुमारश्रमण ने पूछा-क्यों? क्योंकि भदन्त ! वह वनखण्ड उपसर्ग सहित होने से रहना योग्य नहीं है । इसी प्रकार हे चित्त ! तुम्हारी सेयविया नगरी कितनी ही अच्छी हो, परन्तु वहाँ भी प्रदेशी नामक राजा रहता है । वह अधार्मिक यावत् प्रजाजनों से राज-कर लेकर भी उनका अच्छी तरह से पालनपोषण और रक्षण नहीं करता है । अत एव हे चित्त ! मैं उस सेयविया नगरी में कैसे आ सकता हूँ? सूत्र - ५७ चित्त सारथी ने केशी कुमारश्रमण से निवेदन किया-हे भदन्त ! आपको प्रदेशी राजा से क्या करना है ? भगवन् ! सेयविया नगरी में दूसरे राजा, ईश्वर, तलवर यावत् सार्थवाह आदि बहुत से जन हैं, जो आप देवानुप्रिय को वंदन करेंगे, नमस्कार करेंगे यावत् आपकी पर्युपासना करेंगे । विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आहार से प्रतिलाभित करेंगे, तथा प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक ग्रहण करने के लिए उपनिमंत्रित करेंगे । हे चित्त ! ध्यान में रखेंगे। तत्पश्चात् चित्त सारथी ने केशी कुमारश्रमण को वंदना की, नमस्कार किया और कोष्ठक चैत्य से बाहर नीकला । जहाँ श्रावस्ती नगरी थी, जहाँ राजमार्ग पर स्थित अपना आवास था, वहाँ आया और कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर उनसे कहा-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चार घंटों वाला अश्वरथ जोतकर लाओ । इसके बाद जिस प्रकार मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 42

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