Book Title: Agam 13 Rajprashniya Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय' प्रधान, गुणप्रधान, करणप्रधान, चरणप्रधान, निग्रह-प्रधान, निश्चय प्रधान, आर्जवप्रधान, मार्दवप्रधान, लाघवप्रधान, क्षमाप्रधान, गुप्तिप्रधान, मुक्तिप्रधान, विद्याप्रधान, मंत्रप्रधान, कुशल अनुष्ठानों में प्रधान, वेदप्रधान, नयप्रधान, नियमप्रधान, सत्यप्रधान, शौचप्रधान, ज्ञानप्रधान, दर्शनप्रधान, चारित्रप्रधान, उदार, घोर परीषहों, इन्द्रियों और कषायों का निग्रह में कठोर, घोरव्रती, घोरतपस्वी, घोर ब्रह्मचर्यवासी, शरीरसंस्कार के त्यागी, विपुल तेजोलेश्या को अपने शरीर में ही समाये रखने वाले, चौदह पूर्वो के ज्ञाता, मतिज्ञानादि चार ज्ञानों के धनी पार्थापत्य केशी नामक कुमारश्रमण पाँच सौ अनगारों से परिवृत्त होकर अनुक्रम से चलते हुए, ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए, सुखे-सुखे विहार करते हुए जहाँ श्रावस्ती नगरी थी, जहाँ कोष्ठक चैत्य था, वहाँ पधारे एवं श्रावस्ती नगरी के बाहर कोष्ठक चैत्य में यथोचित अवग्रह को ग्रहण कर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। सूत्र-५४
तत्पश्चात् श्रावस्ती नगरी के शृंगाटकों, त्रिकों, चतुष्कों, चत्वरों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और मार्गों में लोग आपस में चर्चा करने लगे, लोगों के झुंड इकट्ठे होने लगे, लोगों के बोलने की घोंघाट सूनाई पड़ने लगी, जनकोलाहल होने लगा, भीड़ के कारण लोग आपस में टकराने लगे, एक के बाद एक लोगों के टोले आते दिखाई देने लगे, इधर-उधर से आकर लोग एक स्थान पर इकट्ठे होने लगे, यावत् पर्युपासना करने लगे।
तब लोगों की बातचीत, जनकोलाहल सूनकर तथा जनसमूह को देखकर चित्त सारथी को इस प्रकार का यह आन्तरिक यावत् उत्पन्न हुआ कि क्या आज श्रावस्ती नगरी में इन्द्रमह है ? अथवा स्कन्दमह है ? या रुद्रमह, मुकुन्दमह, शिवमह, वैश्रमणमह, नागमह, यक्षमह, भूतमह, स्तूपमह, चैत्यमह, वृक्षमह, गिरिमह, दरिमह, कूपमह, नदीमह, सरमह अथवा सागरमह है ? कि जिससे ये बहुत से उग्रवंशीय, उग्रवंशीयकुमार, भोगवंशीय, राजन्यवंशीय, इब्भ, इब्भपुत्र तथा दूसरे भी अनेक राजा ईश्वर, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्यश्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदि सभी स्नान कर, बलिकर्म कर, कौतुक-मंगल-प्रायश्चित्त कर, मस्तक और गले में मालाएं धारण कर, मणिजटित स्वर्ण के आभूषणों से शरीर को विभूषित कर, गले में हार, अर्धहार, तिलडी, झुमका, और कमर में लटकते हुए कटिसूत्र पहनकर, शरीर पर चंदन का लेप कर, आनंदातिरेक से सिंहनाद और कलकल ध्वनि से श्रावस्ती नगरी को गुंजाते हुए जनसमूह के साथ एक ही दिशा में मुख करके जा रहे हैं आदि । यावत् उनसे में कितने ही घोड़ो पर सवार होकर, कईं हाथी पर सवार होकर, रथों में बैठकर, या पालखी या स्यंदमानिका में बैठकर और कितने ही अपने अपने समुदाय बनाकर पैदल ही जा रहे हैं । ऐसा विचार किया और विचार करके कंचुकी पुरुष को बुलाकर उससे पूछा-देवानुप्रिय ! आज क्या श्रावस्ती नगरी में इन्द्र-महोत्सव है यावत् सागरयात्रा है कि जिससे ये बहुत से उग्रवंशीय आदि सभी लोग अपने-अपने घरों से नीकलकर एक ही दिशा में जा रहे हैं ?
तब उस कंचुकी पुरुष ने केशी कुमारश्रमण के पदार्पण होने के निश्चित समाचार जानकर दोनों हाथ जोड़ यावत् जय-विजय शब्दों से वधाकर चित्तसारथी से निवेदन किया-देवानुप्रिय ! आज श्रावस्ती नगरी में इन्द्रमहोत्सव यावत् समुद्रयात्रा आदि नहीं है । परन्तु हे देवानुप्रिय ! आज जाति आदि में संपन्न पार्थापत्य केशी नामक कुमारश्रमण यावत् एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विहार करते हुए यहाँ पधारे हैं यावत् कोष्ठक चैत्य में बिराजमान हैं । इसी कारण आज श्रावस्ती नगरी के ये अनेक उग्रवंशीय यावत् इब्भ, इब्भपुत्र आदि वंदना आदि करने के विचार से बड़े-बड़े समुदायों में अपने घरों से नीकल रहे हैं । तत्पश्चात् कंचुकी पुरुष से यह बात सून-समझकर चित्त सारथी ने हृष्ट-तुष्ट यावत् हर्षविभोर होते हुए कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । उनसे कहा शीघ्र ही चार घंटों वाले अश्वरथ को जोतकर उपस्थित करो । यावत् वे कौटुम्बिक पुरुष छत्रसहित अश्वरथ को जोतकर लाये।
तदनन्तर चित्त सारथी ने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक मंगल प्रायश्चित्त किया, शुद्ध एवं सभाउचित मांगलिक वस्त्रों को पहना, अल्प किन्तु बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया और वह चार घण्टों वाले अश्वरथ के पास आया । उस चातुर्घट अश्वरथ पर आरूढ़ हुआ एवं कोरंट पुष्पों की मालाओं से सुशोभित छत्र धारण करके सुभटों के विशाल समुदाय के साथ श्रावस्ती नगरी के बीचों-बीच होकर नीकला । जहाँ कोष्ठक
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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