Book Title: Agam 13 Rajprashniya Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्निय' पहले सेयविया नगरी से प्रस्थान किया था उसी प्रकार श्रावस्ती नगरी से नीकलकर यावत् जहाँ केकय-अर्ध देश था, उसमें जहाँ सेयविया नगरी थी और जहाँ उस नगरी का मृगवन नामक उद्यान था, वहाँ आ पहुँचा । वहाँ आकर उद्यानपालकों को बुलाकर इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! जब पापित्य केशी नामक कुमारश्रमण श्रमणचर्यानुसार अनुक्रम से विचरते हुए, ग्रामानुग्राम विहार करते हुए यहाँ पधारे तब तुम केशी कुमारश्रमण को वन्दना करना, नमस्कार करना । उन्हें यथाप्रतिरूप वसतिका की आज्ञा देना तथा प्रातिहारिक पीठ, फलक आदि के लिए उपनिमंत्रित करना और इसके बाद मेरी इस आज्ञा को शीघ्र ही मुझे वापस लौटाना । चित्त सारथी की इस आज्ञा को सूनकर वे उद्यानपालक हर्षित हुए, सन्तुष्ट हुए यावत् विकसितहृदय होते हुए दोनों हाथ जोड़ यावत्-उसकी आज्ञा को विनयपूर्वक स्वीकार किया। सूत्र-५८
तत्पश्चात् चित्त सारथी सेयविया नगरी में आ पहुँचा । सेयविया नगरी के मध्य भाग में प्रविष्ट हुआ । जहाँ प्रदेशी राजा का भवन व बाह्य उपस्थानशाला थी, वहाँ आया । घोड़ों को रोका, रथ को खड़ा किया, रथ से नीच ऊतरा और उस महार्थक यावत् भेंट को लेकर जहाँ प्रदेशी राजा था, वहाँ पहुँचकर दोनों हाथ जोड़ यावत् जयविजय शब्दों से वधाकर प्रदेशी राजा के सन्मुख उस महार्थक यावत् उपस्थित किया । इसके बाद प्रदेशी राजा ने चित्त सारथी से वह महार्थक यावत् भेंट स्वीकार की और सत्कार-सम्मान करके चित्त सारथी को बिदा किया । चित्त सारथी हृष्ट यावत् विकसितहृदय हो प्रदेशी राजा के पास से नीकला और जहाँ चार घंटों वाले अश्वरथ, अश्वरथ पर आरूढ़ हुआ तथा सेयविया नगरी के बीचों-बीच से गुजर कर अपने घर आया । रथ से नीचे ऊतरा । स्नान करके यावत् श्रेष्ठ प्रासाद के ऊपर जोर-जोर से बजाए जा रहे मृदंगो की ध्वनिपूर्वक उत्तम तरुणियों द्वारा किये जा रहे बत्तीस प्रकार के नाटकों आदि के नत्य, गान और क्रीडा को सुनता, देखता और हर्षित होता हआ मनोज्ञ शब्द, स्पर्श यावत् विचरने लगा। सूत्र - ५९
तत्पश्चात् किसी समय प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक आदि उन-उनके स्वामियों को सौंपकर केशी कुमारश्रमण श्रावस्ती नगरी और कोष्ठक चैत्य से बाहर नीकले । पाँच सौ अन्तेवासी अनगारों के साथ यावत् विहार करते हुए जहाँ केकयधर्म जनपद था, जहाँ सेयविया नगरी थी और उस नगरी का मृगवन नामक उद्यान था, वहाँ आए । यथाप्रतिरूप अवग्रह लेकर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । तत्पश्चात् सेयविया नगरी के शृंगाटकों आदि स्थानों पर लोगों में बातचीत होने लगी यावत् परिषद् वंदना करने नीकली । वे उद्यानपालक भी इस संवाद को सुनकर और समझकर हर्षित, सन्तुष्ट हुए यावत् विकसितहृदय होते हुए जहाँ केशी कुमारश्रमण थे, वहाँ आकर केशी कुमारश्रमण को वन्दना की, नमस्कार किया एवं यथाप्रतिरूप अवग्रह प्रदान की। प्रातिहारिक यावत् संस्तारक आदि ग्रहण करने के लिये उपनिमंत्रित किया।
इसके बाद उन्होंने नाम एवं गोत्र पूछकर फिर एकान्त में वे परस्पर एक दूसरे से इस प्रकार बातचीत करने लगे-'देवानुप्रियो ! चित्त सारथी जिनके दर्शन की आकांक्षा करते हैं, प्रार्थना करते हैं, स्पृहा करते हैं, अभिलाषा करते हैं, जिनका नाम, गोत्र सूनते ही हर्षित, सन्तुष्ट यावत् विकसितहृदय होते हैं, ये वही केशी कुमारश्रमण पूर्वानुपूर्वी से गमन करते हुए, एक गाँव से दूसरे गाँव में विहार करते हुए यहाँ आये हैं, तथा इसी सेयविया नगरी के बाहर मृगवन उद्यान में यथाप्रतिरूप अवग्रह ग्रहण करके यावत् बिराजते हैं । अत एव देवानुप्रिय ! हम चलें और चित्त सारथी के प्रिय इस अर्थ को उनसे निवेदन करें । हमारा यह निवेदन उन्हें बहुत ही प्रिय लगेग ।' एक दूसरे ने इस विचार को स्वीकार किया। इसके बाद वे वहाँ आये जहाँ सेयविया नगरी, चित्त सारथी का घर तथा घर में जहाँ चित्त सारथी थे । वहाँ आकर दोनों हाथ जोड़ यावत् चित्त सारथी को बधाया और इस प्रकार निवेदन कियादेवानुप्रिय ! आपको जिनके दर्शन की ईच्छा है यावत् जिनके नाम एवं गोत्र को सूनकर आप हर्षित होते हैं, ऐसे केशी कुमारश्रमण पूर्वानुपूर्वी से विचरते हुए यहाँ पधार गए हैं यावत् विचर रहे हैं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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