Book Title: Agam 13 Rajprashniya Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय' के ऊपर एक-एक चैत्यवृक्ष है । ये सभी चैत्यवृक्ष ऊंचाई में आठ योजन ऊंचे, जमीन के भीतर आधे योजन गहरे हैं। इनका स्कन्ध भाग दो योजन का और आधा योजन चौड़ा है । स्कन्ध से नीकलकर ऊपर की ओर फैली हुई शाखाएं छ योजन ऊंची और लम्बाई-चौड़ाई में आठ योजन है । कुल मिलाकर इनका सर्वपरिमाण कुछ अधिक आठ योजन है । इन वृक्षों के मूल वज्ररत्नों के हैं, विडिमाएं रजत की, कंद रिष्टरत्नों के, मनोरम स्कन्ध वैडूर्यमणि के, मूलभूत प्रथम विशाल शाखाएं शोभनीक श्रेष्ठ स्वर्ण की, विविध शाखा-प्रशाखाएं नाना प्रकार के मणि-रत्नों की, पत्ते वैडूर्यरत्न के, पत्तों के वृन्त स्वर्ण के, अरुणमृदु-सुकोमल-श्रेष्ठ प्रवाल, पल्लव एवं अंकुर जाम्बूनद (स्वर्ण विशेष) के हैं और विचित्र मणिरत्नों एवं सुरभिगंध-युक्त पुष्प-फलों के भार से नमित शाखाओं एवं अमृत के समान मधुररस युक्त फलवाले ये वृक्ष सुंदर मनोरम छाया, प्रभा, कांति, शोभा, उद्योत से संपन्न नयन-मन को शांतिदायक एवं प्रासादिक हैं । उन चैत्यवृक्षों के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रातिछत्र सुशोभित हो रहे हैं।
उन प्रत्येक चैत्यवृक्षों के आगे एक-एक मणिपीठिका है । ये मणिपीठिकाएं आठ योजन लम्बी-चौड़ी, चार योजन मोटी, सर्वात्मना मणिमय निर्मल यावत् प्रतिरूप हैं । उन मणिपीठिकाओं के ऊपर एक-एक माहेन्द्रध्वज फहरा रहा है । ये माहेन्द्रध्वज साठ योजन ऊंचे, आधा कोस जमीन के भीतर ऊंडे, आधा कोस चौड़े, वज्ररत्नों से निर्मित, दीप्तिमान, चीकने, कमनीय, मनोज्ञ वर्तुलाकार शेष ध्वजाओं से विशिष्ट, अन्यान्य हजारों छोटी-बड़ी अनेक प्रकार की मनोरम रंग-बिरंगी पताकाओं से परिमंडित, वायुवेग से फहराती हुई विजय-वैजयन्ती पताका, छत्रातिछत्र से युक्त आकाशमंडल को स्पर्श करने वाले ऐसे ऊंचे उपरिभागों से अलंकृत, मन को प्रसन्न करने वाले हैं । इन माहेन्द्र-ध्वजों के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रातिछत्र सुशोभित हो रहे हैं।
उन माहेन्द्रध्वजों के आगे एक-एक नन्दा नामक पुष्करिणी बनी हुई है। सौ योजन लम्बी, पचास योजन चौड़ी, दस योजन ऊंडी है और स्वच्छनिर्मल है आदि वर्णन पूर्ववत् । इनमें से कितनेक का पानी स्वाभाविक पानी जैसा मधुर रस वाला है । ये प्रत्येक नन्दा पुष्करिणियाँ एक-एक पद्मवर-वेदिका और वनखण्डों से घिरी हुई है । इन नन्दा पुष्करिणियों की तीन दिशाओं में अतीव मनोहर त्रिसोपान-पंक्तियाँ हैं । इन के ऊपर तोरण, ध्वजाएं, छत्रातिछत्र सुशोभित हैं आदि वर्णन पूर्ववत् ।
सुधर्मासभा में अड़तालीस हजार मनोगुलिकाएं हैं, वे इस प्रकार हैं- पूर्व-पश्चिम में सोलह-सोलह हजार और दक्षिण-उत्तर में आठ-आठ हजार । उन मनोगुलिकाओं के ऊपर अनेक स्वर्ण एवं रजतमय फलक और उन स्वर्ण रजतमय पाटियों पर अनेक वज्ररत्नमय नागदंत लगे हैं । उन वज्रमय नागदंतों पर काले सूत से बनी हुई गोल लम्बी-लम्बी मालाएं लटक रही हैं । सुधर्मा सभा में अड़तालीस हजार गोमानसिकाएं रखी हुई हैं । नागनन्दों पर्यन्त इनका वर्णन मनोगुलिकाओं के समान समझना ।
उन नागदंतों के ऊपर बहुत से रजतमय शींके लटके हैं । उन रजतमय शींकों में बहुत-से वैडूर्य रत्नों से बनी हुई धूपघटिकाएं रखी हैं । वे धूपघटिकाएं काले अगर, श्रेष्ठ कुन्दुरुष्क आदि की सुगंध से मन को मोहित कर रही हैं । उस सुधर्मा सभा के भीतर अत्यन्त रमणीय सम भूभाग है । वह भूमिभाग यावत् मणियों से उपशोभित हे आदि मणियों के स्पर्श एवं चंदवा पर्यन्त का सब वर्णन पूर्ववत् । उन अति सम रमणीय भूमिभाग के अति मध्यदेश में एक विशाल मणिपीठिका बनी हुई है । जो आयाम-विष्कम्भ की अपेक्षा सोलह योजन लम्बी-चौड़ी और आठ योजन मोटी तथा सर्वात्मना रत्नों से बनी हुई यावत् प्रतिरूप हैं।
उन मणिपीठिका के ऊपर एक माणवक नामक चैत्यस्तम्भ है । वह ऊंचाई में साठ योजन ऊंचा, एक योजन जमीन के अंदर गहरा, एक योजन चौड़ा और अड़तालीस कोनों, अड़तालीस धारों और अड़तालीस आयामोंवाला है। शेष वर्णन माहेन्द्रध्वज जैसा जानना । उस माणवक चैत्यस्तम्भ के ऊपरी भाग में बारह योजन और नीचे बारह योजन छोड़कर मध्य के शेष छत्तीस योजन प्रमाण भाग में अनेक स्वर्ण और रजतमय फलक लगे हुए हैं । उन स्वर्ण-रजतमय फलकों पर अनेक वज्रमय नागदंत हैं । उन वज्रमय नागदंतों पर बहुत से रजतमय सीके लटक रहे हैं । उन रजतमय सींकों में वज्रमय गोल गोल समुद्गक रखे हैं । उन गोल-गोल वज्ररत्नमय समुद्
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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