Book Title: Agam 13 Rajprashniya Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 5
________________ आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय' [१३] राजप्रश्चिय उपांगसूत्र-२-हिन्दी अनुवाद [अरिहंतों को नमस्कार हो । सिद्धों को नमस्कार हो । आचार्यों को नमस्कार हो । उपाध्याय को नमस्कार हो । लोक में रहे हुए सर्व साधुओं को नमस्कार हो ।] सूत्र-१-४ उस काल और उस समय में आमलकल्पा नाम की नगरी थी । वह भवनादि वैभव-विलास से सम्पन्न थी यावत्-मनोहर रूप वाली थी और असाधारण सौन्दर्य वाली थी। उस आमलकल्पा नगरीके बाहर ईशान दिशा में आम्रशालवन नामक चैत्य था । वह चैत्य बहुत प्राचीन था उस चैत्यवर्ती श्रेष्ठ अशोकवृक्ष और पृथ्वीशिलापट्टक का वर्णन उववाईसूत्र अनुसार जानना । उस आमलकल्पा नगरी में सेय नामक राजा राज्य करता था । उसकी धारिणी नाम की पटरानी थी। स्वामी-श्रमण भगवान महावीर पधारे । परिषद् नीकली। राजा भी यावत् पर्युपासना करने लगा। सूत्र-५ उस काल उस समय में सूर्याभ नामक देव सौधर्म स्वर्ग में सूर्याभ नामक विमान की सुधर्मा सभा में सूर्याभ सिंहासन पर बैठकर चार हजार सामानिक देवों, सपरिवार चार अग्रमहिषियों, तीन परिषदाओं, सात अनीकों, सात अनीकाधिपतियों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा और बहुत से सूर्याभ विमानवासी वैमानिक देवदेवियों सहित अव्याहत निरन्तर नाट्य एवं निपुण पुरुषों द्वारा वादित वीणा हस्तताल, कांस्यताल और अन्यान्य वादिंत्रों तथा घनमृदंग के साथ दिव्य भोगों को भोगता हआ विचर रहा था । उस समय उसने अपने विपुल अवधिज्ञानोपयोग द्वारा इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को देखा। उस समय उसने जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में आमलकल्पा नगरी के बाहर आम्रशालवन चैत्य में यथा प्रतिरूप अवग्रह ग्रहण कर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए श्रमण भगवान महावीर को देखा । वह हर्षित और अत्यन्त सन्तुष्ट हुआ, उसका चित्त आनंदित हो उठा । प्रीति उत्पन्न हुई, अतीव सौमनस्य को प्राप्त हुआ, हर्षातिरेक से उसका हृदय फूल गया, नेत्र और मुख विकसित श्रेष्ठ कमल जैसे हो गये । अपार हर्ष के कारण पहने हुए श्रेष्ठ कटक, त्रुटित, केयूर, मुकूट और कुण्डल चंचल हो उठे, वक्षःस्थल हार से चमचमाने लगा, पैरों तक लटकते प्रालंब-झूमके विशेष चंचल हो उठे और उत्सुकता, तीव्र अभिलाषा से प्रेरित हो वह देवश्रेष्ठ सूर्याभ देव हासन से उठा | पादपीठ पर पैर रखकर नीचे ऊतरा । पादकायें उतारी। एकाशाटिक उत्तरासंग किया। तीर्थंकर के अभिमुख सात-आठ डग चला, बायाँ घुटना ऊंचा रखा और दाहिने घुटने को नीचे भूमि पर टेक कर तीन बार मस्तक को पथ्वी पर नमाया । तत्पश्चात कटक त्रटित से स्तंभित दोनों भुजाओं को मिलाया । हाथ जोड आवर्त्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके उसने इस प्रकार कहा अरिहंत भगवंतों को नमस्कार हो, धर्म की आदि करने वाले, तीर्थ स्थापना करने वाले, स्वयं ही बोध को प्राप्त, पुरुषों में उत्तम, कर्म-शत्रुओं विनाश में पराक्रमी, पुरुषों में सिंह के समान, पुरुषों में श्रेष्ठ कमल समान, पुरुषों में उत्तम गंधहस्ती समान, लोक में उत्तम, लोक के नाथ, लोक का हित करने वाले, लोक में प्रदीप के समान, लोक में विशेष उद्योत करने वाले, अभय देने वाले, श्रद्धा-ज्ञान-रूप नेत्र के दाता, धर्म मार्ग के दाता, जीवों दया का उपदेशक, शरणदाता, बोधिदाता, धर्मदाता, धर्म उपदेशक, धर्म नायक, धर्म सारथी, चतुर्गति रूप संसार का अंत करने वाले धर्म चक्रवर्ती, अव्याघात केवल-ज्ञान-दर्शन के धारक, छद्म के नाशक, रागादि जीतने वाले, जीतने के लिए अन्य को प्रेरित करने वाले, संसार-सागर से स्वयं तिरे हुए और दूसरों को तिरने का उपदेश देने वाले, स्वयं मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 5

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