Book Title: Agam 13 Rajprashniya Sutra Hindi Anuwad Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar View full book textPage 6
________________ आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्निय' कर्म-बंधन से मुक्त और दूसरों को मुक्त करने वाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी शिव, कल्याण रूप, अचल को प्राप्त हुए, अरुज, अक्षय, अव्याबाध, अपुनरावृत्ति-सिद्धि गति नामक स्थान में स्थित भगवंतों को नमस्कार हो । धर्म की आदि करनेवाले, तीर्थंकर यावत् सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त करने की ओर अग्रेसर श्रमण भगवान महावीर को मेरा नमस्कार हो । तत्रस्थ बिराजमान भगवान को अत्रस्थ मैं वंदना करता हूँ । वहाँ पर रहे हुए वे भगवान यहाँ रहे हुए मुझे देखते हैं । इस प्रकार स्तुति कर के वन्दन-नमस्कार किया । फिर पूर्व दिशा की ओर मुख कर के श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठ गया। सूत्र -६ तत्पश्चात् उस सूर्याभ देव के मन में इस प्रकार का यह आध्यात्मिक चिन्तित, प्रार्थित, इष्ट और मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ । जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में स्थित आमलकल्पा नगरी के बाहर आम्रशालवन चैत्य में यथाप्रतिरूप अवग्रह को लेकर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए श्रमण भगवान महावीर बिराजमान हैं । मेरे लिए श्रेय रूप हैं । जब तथारूप भगवंतों के मात्र नाम और गोत्र के श्रवण करने का ही महाफल होता है तो फिर उनके समक्ष जाने का, उनको वंदन करने का, नमस्कार करने का, उनसे प्रश्न पूछने का और उनकी उपासना करने का प्रसंग मिले तो उसके विषय में कहना ही क्या है ? आर्य पुरुष के एक भी धार्मिक सुवचन सूनने का ही जब महाफल प्राप्त होता है तब उनके पास विपुल अर्थ-उपदेश ग्रहण करने के महान् फल की तो बात ही क्या है ! इसलिए मैं जाऊं और श्रमण भगवान महावीर को वन्दन करूँ, नमस्कार करूँ, उनका सत्कार-सम्मान करूँ और कल्याण रूप, मंगलरूप, देवरूप और चैत्य स्वरूप भगवान की पर्युपासना करूँ | ये मेरे लिये अनुगामी रूप से परलोक में हितकर, सुखकर, क्षेमकर, निश्रेयस्कर होगी, ऐसा उसने विचार किया । विचार करके अपने आभियोगिक देवों को बुलाया और इस प्रकार कहा। सूत्र-७ हे देवानुप्रियो ! यथाप्रतिरूप अवग्रह को ग्रहण करके संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए श्रमण भगवान महावीर जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भरतक्षेत्रवर्ती आमलकल्पा नगरी के बाहर आम्रशालवन चैत्य में बिराजमान हैं । हे देवानुप्रियो ! तुम जाओ और जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित आमलकल्पा नगरी के बाहर आम्रशालवन चैत्य में बिराजमान श्रमण भगवान महावीर की तीन बार प्रदक्षिणा करो । वन्दन, नमस्कार करो । तुम अपने-अपने नाम और गोत्र उन्हें कह सूनाओ । तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर के बिराजने के आसपास चारों ओर एक योजन प्रमाण गोलाकार भूमि में घास, पत्ते, काष्ठ, कंकड़, अपवित्र, मलिन, सड़ी-गली दुर्गन्धित वस्तुओं को अच्छी तरह से साफ कर दूर एकान्त में ले जाकर फैंको । इसके अनन्तर उस भूमि को पूरी तरह से साफ स्वच्छ करके इस प्रकार से दिव्य सरभि गंधोदक की वर्षा करो कि जिसमें जल अधिक न बरसे, कीचड न हो । इस प्रकार की वर्षा करके उस स्थान को निहितरज, नष्टरज, भ्रष्टरज, उपशांतरज, प्रशांतरज वाला बना दो। जलवर्षा करने के अनन्तर उस स्थान पर सर्वत्र एक हाथ उत्सेध प्रमाण चमकीले जलज और स्थलज पंचरंगे सुगंधित पुष्पों की प्रचुर परिमाण में इस प्रकार से बरसा करो कि उनके वृन्त नीचे की ओर और पंखुड़ियाँ चित्त रहें । पुष्पवर्षा करने के बाद उस स्थान पर अपनी सुगंध से मन को आकृष्ट करने वाले काले अगर, श्रेष्ठ कुन्दु-रुष्क तुरुष्क और धूप को जलाओ कि जिसकी सुगंध से सारा वातावरण मघमघा जाए, श्रेष्ठ सुगंध-समूह के कारण वह स्थान गंधवट्टिका समान बन जाए, दिव्य सुरवरों के अभिगमन योग्य हो जाए, ऐसा तुम स्वयं करो और दूसरों से करवाओ। यह करके और करवा कर शीघ्र मेरी आज्ञा वापस मुझे लौटाओ। सूत्र -८ तत्पश्चात वे आभियोगिक देव सर्याभदेव की इस आज्ञा को सुनकर हर्षित हए, सन्तुष्ट हए, यावत हृदय विकसित हो गया। उन्होंने दोनों हाथों को जोड़ मुकलित दस नखों के द्वारा किये गए सिरसावर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके विनयपूर्वक आज्ञा स्वीकार की । हे देव ! ऐसा ही करेंगे। इस प्रकार से सविनय आज्ञा स्वीकार मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 6Page Navigation
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